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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 25: भक्तियोग की महिमा  »  श्लोक 24
 
 
श्लोक  3.25.24 
त एते साधव: साध्वि सर्वसङ्गविवर्जिता: ।
सङ्गस्तेष्वथ ते प्रार्थ्य: सङ्गदोषहरा हि ते ॥ २४ ॥
 
शब्दार्थ
ते एते—वे ही; साधव:—भक्तगण; साध्वि—हे साध्वी; सर्व—समस्त; सङ्ग—लगाव से; विवर्जिता:—मुक्त; सङ्ग:— लगाव; तेषु—उनके प्रति; अथ—अत:; ते—तुम्हारे द्वारा; प्रार्थ्य:—खोजे जाने चाहिए; सङ्ग-दोष—भौतिक आसक्ति के बुरे प्रभाव; हरा:—हरने वाले; हि—निस्सन्देह; ते—वे ।.
 
अनुवाद
 
 हे माते, हे साध्वी, ये उन महान् भक्तों के गुण हैं, जो समस्त आसक्तियों से मुक्त हैं। तुम्हें ऐसे पवित्र पुरुषों की संगति करनी चाहिए, क्योंकि ऐसी संगति भौतिक आसक्ति के समस्त कुप्रभावों को हरने वाली है।
 
तात्पर्य
 यहाँ पर कपिल मुनि अपनी माता देवहूति को उपदेश देते हैं कि यदि वह भौतिक आसक्ति से मुक्त होना चाहती है, तो उसे साधुओं अर्थात् समस्त भौतिक आसक्तियों से पूर्णतया युक्त भक्तों के प्रति आसक्ति बढ़ानी होगी। भगवद्गीता (१५.५) में बताया गया है कि भगवद्धाम जाने का अधिकारी कौन है। निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा:। यह उस व्यक्ति का संकेत करने वाला है, जो भौतिक सम्पत्ति के अभिमान से सर्वथा मुक्त है। भले ही कोई कितना धनवान, ऐश्वर्यवान या प्रतिष्ठावान क्यों न हो, किन्तु यदि वह आध्यात्मिक-सामराज्य, अर्थात् अपने घर भगवान् के धाम को वापस जाना चाहता है, तो उसे अपने भौतिक वैभव का गर्व छोडऩा होगा, क्योंकि यह एक मिथ्या स्थिति है।

यहाँ पर प्रयुक्त मोह शब्द इस झूठी धारणा का बोध कराता कोई है कि कोई धनी है या निर्धन है। इस संसार में यह अवधारणा कि कोई अत्यन्त धनवान है या निर्धन है अथवा भौतिक वस्तुओं के सम्बन्ध में कोई, झूठी है, क्योंकि स्वयं यह शरीर झूठा या नाशवान है। शुद्ध जीव जो इस भौतिक बन्धन से मुक्त होना चाहता है, उसे पहले प्रकृति के तीन गुणों के संसर्ग से मुक्त होना चाहिए। सम्प्रति हमारी चेतना प्रकृति के तीन गुणों की संगति के कारण कलुषित हो चुकी है, फलत: भगवद्गीता में इसी सिद्धान्त का कथन हुआ है। कहा गया है— जितसङ्गदोषा:—अर्थात् मनुष्य को प्रकृति के तीन गुणों की संगति के दोष से मुक्त होना चाहिए। श्रीमद्भागवत में भी यहाँ पर इसी की पुष्टि हुई है—शुद्ध भक्त जो अपने को भगवद्धाम पहुँचाना चाहता है, वह प्रकृति के तीन गुणों के संसर्ग से भी मुक्त हो जाता है। हमें ऐसे ही भक्तों की संगति ढूँढनी चाहिए। इसी कारण से हमने अन्तर्राष्ट्रिय कृष्णभावनामृत संघ का शुभारम्भ किया है। मानव समाज में विशिष्ट प्रकार की शिक्षा या चेतना (जागृति) उत्पन्न करने के लिए अनेक व्यावसायिक, वैज्ञानिक तथा अन्य संघटन हैं, किन्तु ऐसा एक भी संघटन नहीं है, जो समस्त भौतिक संगति (संसर्ग) से मुक्त होने में सहायक हो। यदि कोई ऐसी अवस्था पर पहुँच चुका है जहाँ वह भौतिक कल्मष से मुक्त होना चाहता है उसे भक्तों की संगति ढूँढनी चाहिए जहाँ एकमात्र कृष्णभक्ति का अनुशीलन होता हो। इससे मनुष्य समस्त भौतिक संसर्ग से मुक्त हो सकता है।

चूँकि भक्त समस्त दोषयुक्त भौतिक संगति से मुक्त हो जाता है, अत: संसार के क्लेश उसे प्रभावित नहीं कर पाते। यद्यपि वह भौतिक जगत में रहता प्रतीत होता है, किन्तु संसार के क्लेश उसे छू नहीं पाते। ऐसा कैसे सम्भव है? बिल्ली के कार्यों के विषय में एक सुन्दर सा उदाहरण है। बिल्ली अपने बच्चों को अपने मुँह में दबाकर ले जाती है और जब वह चूहों को मारती है, तो उस सौगात को भी मुँह में ही ले जाती है। इस प्रकार दोनों ही बिल्ली के मुँह से ले जाये जाते हैं, किन्तु उनकी अवस्थाएँ भिन्न-भिन्न होती हैं। बिल्ली के बच्चे बिल्ली के मुँह में सुख का अनुभव करते हैं, किन्तु जब वह चूहे को ले जाती है, तो चूहे को मृत्यु के भय का अनुभव होता है। इसी प्रकार जो साधु हैं अथवा जो भगवान् की दिव्य सेवा में कृष्णभक्ति में संलग्न रहते हैं उन्हें भौतिक क्लेशों के कल्मष का अनुभव नहीं होता, किन्तु जो कृष्णभक्त नहीं होते उन्हें वास्तव में सांसारिक क्लेशों का अनुभव होता है। अत: मनुष्य को चाहिए कि भौतिकतावादी पुरुषों का संग त्यागकर कृष्णभक्ति में लगे हुए व्यक्तियों की संगति खोजे। इससे उसकी आध्यात्मिक उन्नति हो सकेगी। उनके शब्दों तथा उपदेशों से उसके भवबन्धन कट जाएँगे।

 
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