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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 25: भक्तियोग की महिमा  »  श्लोक 25
 
 
श्लोक  3.25.25 
सतां प्रसङ्गान्मम वीर्यसंविदो
भवन्ति हृत्कर्णरसायना: कथा: ।
तज्जोषणादाश्वपवर्गवर्त्मनि
श्रद्धा रतिर्भक्तिरनुक्रमिष्यति ॥ २५ ॥
 
शब्दार्थ
सताम्—शुद्ध भक्तों की; प्रसङ्गात्—संगति से; मम—मेरे; वीर्य—अलौकिक कार्यों; संविद:—चर्चा से; भवन्ति—हो जाते हैं; हृत्—हृदय को; कर्ण—कान को; रस-अयना:—अच्छी लगने वाली; कथा:—कथाएँ; तत्—उसके; जोषणात्—अनुशीलन से, सेवन से; आशु—तुरन्त; अपवर्ग—मोक्ष के; वर्त्मनि—मार्ग पर; श्रद्धा—दृढ़ विश्वास; रति:—आकर्षण; भक्ति:—भक्ति; अनुक्रमिष्यति—क्रमश: आएँगी ।.
 
अनुवाद
 
 शुद्ध भक्तों की संगति में श्रीभगवान् की लीलाओं तथा उनके कार्यकलापों की चर्चा कान तथा हृदय को अत्यधिक रोचक एवं प्रसन्न करने वाली होती है। ऐसे ज्ञान के अनुशीलन मे मनुष्य धीरे-धीरे मोक्ष मार्ग में अग्रसर होता है, तत्पश्चात् मुक्त हो जाता है और उसका आकर्षण स्थिर हो जाता है। तब असली समर्पण तथा भक्तियोग का शुभारम्भ होता है।
 
तात्पर्य
 यहाँ पर कृष्णभावनामृत तथा भक्ति में अग्रसर होने की विधि वर्णित है। पहली बात है कि वह ऐसे पुरुषों की संगति खोजे जो कृष्णभक्त हैं और भक्तिमय सेवा में लगे हुए हैं। ऐसी संगति के बिना प्रगति नहीं हो सकती। मात्र कोरे ज्ञान या अध्ययन से यथेष्ठ प्रगति सम्भव नहीं। मनुष्य को भौतिकतवादी पुरुषों की संगति त्याग कर भक्तों की संगति खोजनी चाहिए, क्योंकि भक्तों की संगति के बिना भगवान् के कार्यकलापों को नहीं समझा जा सकता। सामान्य रूप से लोग परम सत्य के निर्गुण पक्ष के प्रति आश्वस्त हो जाते हैं। भक्तों की संगति न करने के कारण वे यह नहीं समझ पाते कि परम सत्य भी एक पुरुष हो सकता है, जिसके अपने कार्यकलाप हैं। यह अत्यन्त कठिन विषय है और जब तक परम सत्य विषयक व्यक्तिगत जानकारी न हो तब तक भक्ति का कोई अर्थ नहीं निकलता। किसी निराकार की भक्ति या सेवा नहीं की जाती। सेवा तो व्यक्ति की होती है। अभक्तगण श्रीमद्भागवत या अन्य किसी वैदिक साहित्य में वर्णित भगवान् के कार्यकलापों को पढक़र कृष्णभक्ति को नहीं समझ सकते; वे सोचते हैं कि ये कार्यकलाप काल्पनिक कथाएँ हैं, क्योंकि उन्हें आध्यात्मिक जीवन के विषय में सही ढंग से शिक्षा नहीं दी जाती। भगवान् के कार्य-कलापों को समझने के लिए भक्तों की संगति करनी आवश्यक है और जब ऐसी संगति के फलस्वरूप वह मनन करता है और भगवान् के कार्यकलापों को समझने का प्रयत्न करता है, तो मोक्ष का मार्ग खुल जाता है और वह मुक्त हो जाता है। जिस व्यक्ति की भगवान् में दृढ़ आस्था होती है, वह स्थिर हो जाता है और भगवान् तथा भक्तों की संगति के लिए उसका आकर्षण बढ़ जाता है। भक्तों की संगति का अर्थ है भगवान् की संगति। जो भक्त यह संगति करता है उसमें भगवान् की सेवा करने की चेतना जगती है और फिर भक्तियोग के दिव्य पद में स्थित होकर वह धीरे-धीरे सिद्ध हो जाता है।
 
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