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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 25: भक्तियोग की महिमा  »  श्लोक 27
 
 
श्लोक  3.25.27 
असेवयायं प्रकृतेर्गुणानां
ज्ञानेन वैराग्यविजृम्भितेन ।
योगेन मय्यर्पितया च भक्त्या
मां प्रत्यगात्मानमिहावरुन्धे ॥ २७ ॥
 
शब्दार्थ
असेवया—सेवा न करते हुए; अयम्—यह पुरुष; प्रकृते: गुणानाम्—प्रकृति के गुणों का; ज्ञानेन—ज्ञान से; वैराग्य—वैराग्य से; विजृम्भितेन—विकसित; योगेन—योग के अभ्यास से; मयि—मुझको; अर्पितया—अर्पित, दृढ़ रहकर; —तथा; भक्त्या—भक्ति से; माम्—मुझको; प्रत्यक्-आत्मानम्—परम सत्य; इह—इसी जीवन में; अवरुन्धे—प्राप्त कर लेता है ।.
 
अनुवाद
 
 इस तरह प्रकृति के गुणों की सेवा में न लगकर, अपितु कृष्णभक्ति विकसित करके, वैराग्य युक्त ज्ञान प्राप्त करके तथा योग के अभ्यास से, जिसमें मनुष्य का मन सदैव पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की भक्तिमय सेवा में स्थिर रहता है, मनुष्य इसी जीवन में मेरा साहचर्य (संगति) प्राप्त कर लेता है, क्योंकि मैं परम पुरुष अर्थात् परम सत्य हूँ।
 
तात्पर्य
 जब मनुष्य भक्तियोग की नौ भिन्न-भिन्न विधियों में यथा श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पूजन, प्रार्थना तथा आत्मनिवेदन इत्यादि में लगा रहता है, तो स्वाभाविक रूप से उसे प्रकृति के तीनों गुणों की सेवा में लगने का अवसर ही नहीं मिल पाता। मनुष्य इनमें से किसी एक में, दो में, तीन में या सबों में लग सकता है। जब तक मनुष्य आध्यात्मिक सेवा में ठीक से लगा नहीं रहेगा, तब तक भौतिक सेवा के बन्धन से निकल पाना सम्भव नहीं है। अत: जो भक्त नहीं हैं वे तथाकथित मानवोपयोगी या परोपकार सम्बन्धी कार्यों में—यथा अस्पताल या दातव्य संस्थान खोलने में रुचि लेते हैं। निस्सन्देह ये अच्छे कार्य हैं, क्योंकि ये पुण्यकर्म हैं और इनका फल इतना ही होता है कि कर्ता को इस जीवन में या अगले जीवन में इन्द्रियतृप्ति का कुछ अवसर मिल सकता है। किन्तु भक्ति तो इन्द्रियतृप्ति के घेरे से बाहर रहती है। यह नितान्त आध्यात्मिक कर्म है। जब कोई भक्तियोग के आध्यात्मिक कर्म में लगा रहता है, तो स्वाभाविक है कि उसे इन्द्रियतृप्ति करने वाले कार्यों में लगने का अवसर ही नहीं मिलता। कृष्णभावना सम्बन्धी कार्यकलाप अन्धाधुन्ध नहीं किये जाते वरन् ज्ञान तथा वैराग्य की पूरी पूरी जानकारी से किये जाते हैं। जिस योगाभ्यास में मन भगवान् की भक्ति में निरन्तर स्थिर रहता है उससे इसी जीवन में मुक्ति मिल जाती है। जो व्यक्ति ऐसे कर्म करता है, वह भगवान् का सामीथ पाता है। अत: भगवान् चैतन्य ने भगवान् की लीलाओं के विषय में सिद्ध भक्तों से ही श्रवण विधि की अनुमति दी फिर श्रोता चाहे जिसी भी श्रेणी का हो। यदि वह विनीत होकर सिद्ध पुरुष से भगवान् के कार्यकलापों के विषय में श्रवण करता है, तो वह उन पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् को भी जीतने में समर्थ होगा, जो अन्य किसी विधि से नहीं जीते जा सकते। आत्म-साक्षात्कार के लिए श्रवण या भक्तों की संगति सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य है।
 
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