हिंदी में पढ़े और सुनें
भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 25: भक्तियोग की महिमा  »  श्लोक 32
 
 
श्लोक  3.25.32 
श्रीभगवानुवाच
देवानां गुणलिङ्गानामानुश्रविककर्मणाम् ।
सत्त्व एवैकमनसो वृत्ति: स्वाभाविकी तु या ।
अनिमित्ता भागवती भक्ति: सिद्धेर्गरीयसी ॥ ३२ ॥
 
शब्दार्थ
श्री-भगवान् उवाच—श्रीभगवान् ने कहा; देवानाम्—इन्द्रियों के प्रमुख देवों या इन्द्रियों का; गुण-लिङ्गानाम्—जो विषयों को पहचानते हैं; आनुश्रविक—शास्त्रों के अनुसार; कर्मणाम्—कौन सा कर्म; सत्त्वे—मन को या भगवान् को; एव—केवल; एक-मनस:—अविभाजित मन वाले व्यक्ति का; वृत्ति:—झुकाव; स्वाभाविकी—प्राकृतिक; तु—वास्तव में; या—जो; अनिमित्ता—निमित्तरहित; भागवती—भगवान् के प्रति; भक्ति:—भक्ति; सिद्धे:—मोक्ष की अपेक्षा; गरीयसी—श्रेयस्कर ।.
 
अनुवाद
 
 भगवान् कपिल ने कहा : ये इन्द्रियाँ दैवों की प्रतीकात्मक प्रतिनिधि हैं और इनका स्वाभाविक झुकाव वैदिक आदेशों के अनुसार कर्म करने में है। जिस प्रकार इन्द्रियाँ देवताओं देवताओं की प्रतीक हैं, उसी प्रकार मन भी पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् का प्रतिनिधि है। मन का प्राकृतिक कार्य सेवा करना है। जब यह सेवा-भाव किसी हेतु के बिना श्रीभगवान् की सेवा में लगा रहता है, तो यह सिद्धि से कहीं बढक़र है।
 
तात्पर्य
 जीवात्मा की इन्द्रियाँ सदैव किसी न किसी वृत्ति में लगी रहती हैं, चाहे वे वेदविहित कार्य हों या भौतिक कार्य हों। इन्द्रियों की सहज प्रवृत्ति है कि वे किसी न किसी कार्य में लगी रहती हैं और मन इन इन्द्रियों का केन्द्र विन्दु है। मन वास्तव में इन्द्रियों का नायक है, इसीलिए यह सत्त्व कहलाता है। इसी प्रकार सारे देवता चाहे वे सूर्यदेव हों, चन्द्रदेव, इन्द्र या अन्य देवता हों—जो इस संसार के कर्मों में लगे हुए हैं, उन सबके नायक श्रीभगवान् हैं।

वैदिक साहित्य में बताया गया है कि देवता पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के विराट शरीर के विभिन्न अंग हैं। हमारी इन्द्रियाँ विभिन्न देवताओं का प्रतिनिधित्व करती हैं और मन भगवान् का प्रतिनिधित्व करता है। मन द्वारा पथप्रदर्शित सारी इन्द्रियाँ देवताओं के वशीभूत होकर कार्य करती हैं। जब यह सेवा श्रीभगवान् के प्रति लक्षित होती है, तो इन्द्रियाँ अपनी सहज स्थिति में होती हैं। भगवान् को हृषीकेश कहा जाता है, क्योंकि वे ही इन्द्रियों के वास्तविक स्वामी हैं।

इन्द्रियों तथा मन की सहज प्रवृति कार्य करने की है, किन्तु जब वे भौतिक रूप से कलुषित हो जाती हैं, तो वे किसी भौतिक लाभ या देवताओं की सेवा के लिए कार्य करती हैं, जबकि वे श्रीभगवान् की सेवा के निमित्त होते हैं। इन्द्रियाँ हृषीक कहलाती हैं और भगवान् हृषीकेश। इस तरह समस्त इन्द्रियों की अप्रत्यक्ष प्रवृत्ति परमेश्वर की सेवा करने की ओर रहती है। यही भक्ति है।

कपिलदेव ने कहा कि जब सारी इन्द्रियाँ किसी भौतिक लाभ या अन्य स्वार्थ की इच्छा के बिना भगवान् की सेवा में लगी रहती हैं, तो मनुष्य भक्तियोग के पद पर स्थित होता है। सेवा की यह भावना सिद्धि से बढक़र है। भगवान् की सेवा करने की प्रवृत्ति, अर्थात् मुक्ति की अपेक्षा भक्ति अधिक उत्तम दिव्य स्थिति है। इस तरह भक्ति मुक्ति के बाद की अवस्था है। बिना मुक्त हुए कोई मनुष्य अपनी इन्द्रियों को भगवान् की सेवा में प्रवृत्त नहीं कर सकता। जब इन्द्रियाँ इन्द्रियतृप्ति के कार्यों में अथवा वेदविहित कार्यों में लगी रहती हैं, तो इसका एक न एक कारण रहता है, किन्तु जब वही इन्द्रियाँ भगवान् की सेवा में लगी होती हैं, तो कोई हेतु नहीं रहता (अहैतुकी)। इसे अनिमित्ता कहते हैं और यह मन की सहज प्रवृत्ति है। निष्कर्ष यह निकला कि जब मन वैदिक आदेशों या भौतिक कार्यकलापों से विचलित हुए बिना कृष्णभावनामृत अथवा पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की भक्तिमय सेवा में पूर्णतया संलग्न हो जाता है, तो यह स्थिति भवबन्धन से मुक्ति की सर्वोत्कृष्ट कामना से भी बढक़र है।

 
शेयर करें
       
 
  All glories to Srila Prabhupada. All glories to  वैष्णव भक्त-वृंद
  Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.

 
>  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥