भक्ति जीवात्मा के सूक्ष्म शरीर को बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के उसी प्रकार विलय कर देती है, जिस प्रकार जठराग्नि खाये हुए भोजन को पचा देती है।
तात्पर्य
मुक्ति की अपेक्षा भक्ति उच्चतर स्थिति में होती है, क्योंकि भक्ति द्वारा भवबन्धन से मुक्ति पाने के मानवी प्रयास की स्वत: पूर्ति हो जाती है। यहाँ जठराग्नि का उदाहरण दिया गया है, जो हमारे खाये गये सारे भोजन को पचा देती है। यदि पाचनशक्ति पर्याप्त हो तो हम चाहे जो भी खाएँ, उसे जठराग्नि पचा देती है। इसी तरह भक्त को मुक्ति प्राप्त करने के लिए अलग से प्रयास नहीं करना पड़ता। श्रीभगवान् की यही सेवा उसकी मुक्ति की विधि भी है, क्योंकि अपने को भगवान् की सेवा में लगाना अपने आपको भवबन्धन से मुक्त करना है। श्री बिल्वमंगल ठाकुर ने इस स्थिति की अच्छे ढंग से व्याख्या की है। वे कहते हैं, “यदि परमेश्वर के चरणकमलों के प्रति हमारी अटूट भक्ति है, तो मुक्ति मेरी दासी है। यह मुक्ति रूपी दासी वह सब करने के लिए सदा सन्नद्ध रहती है, जो जो मैं कहता हूँ।”
भक्त के लिए मुक्ति कोई समस्या ही नहीं है। उसे किसी पृथक् प्रयास के बिना ही मुक्ति मिल जाती है। अत: भक्ति मुक्ति अर्थात् निर्विशेषवादी स्थिति से श्रेयस्कर है। निर्विशेषवादी मुक्ति प्राप्त करने के लिए कठिन तपस्या करते हैं, किन्तु भक्त मात्र भक्तियोग में, विशेष रूप से हरे कृष्ण .............हरे राम हरे हरे, महामन्त्र के कीर्तन में लगकर तथा श्रीभगवान् को अर्पित भोग के बचे हुए भाग से भोजन ग्रहण करके अपनी जीभ पर तुरंत नियंत्रण पाकर इसे प्राप्त कर लेता है। जीभ पर नियन्त्रण होते ही अन्य सारी इन्द्रियों पर स्वत: ही नियन्त्रण प्राप्त हो जाता है। इन्द्रियों का नियन्त्रण (निग्रह) ही योग की पूर्णता है और ज्योंही मनुष्य अपने आपको भगवान् की सेवा में लगा देता है उसकी मुक्ति तुरन्त हो जाती है। कपिल देव इसकी पुष्टि कर रहे हैं कि भक्ति सिद्धि (मुक्ति) से श्रेयष्कर है।
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