भक्तों की तीन श्रेणियाँ हैं—उत्तम, मध्यम तथा कनिष्ठ। कनिष्ठ श्रेणी तक के भक्त मुक्त हो जाते हैं। इस श्लोक में बताया गया है कि ज्ञान न होने पर भी मन्दिर में विग्रह का अलंकरण देखकर भक्त उसी के ध्यान में तल्लीन होकर अन्य समस्त चेतना खो देता है। इस तरह मात्र कृष्णचेतना में अपने को स्थिर करते हुए और इन्द्रियों को भगवान् की सेवा में लगाकर मनुष्य अनजाने ही मुक्त हो जाता है। इसकी पुष्टि भगवद्गीता में भी हुई है। केवल शास्त्रानुमोदित अमिश्रित भक्ति करने से मनुष्य ब्रह्म समान होता है। भगवद्गीता में कहा गया है : ब्रह्मभूयाय कल्पते। इसका आशय यह हुआ कि जीव अपनी आदि अवस्था में ब्रह्म है, क्योंकि वह परब्रह्म का अंश है। किन्तु अपने इस वास्तविक स्वभाव को, कि वह भगवान् का शाश्वत दास है, भूल जाने से वह माया द्वारा मोहित हो जाता है। अपनी वास्तविक स्वाभाविक स्थिति की विस्मृति ही माया है। अन्यथा वह शाश्वत रूप से ब्रह्म है। जब मनुष्य को अपनी स्थिति के प्रति सचेत रहने की शिक्षा दी जाती है, तो वह समझने लगता है कि वह भगवान् का दास है। ‘ब्रह्म’ आत्म-साक्षात्कार की दशा का सूचक है। यहाँ तक कि कनिष्ठ श्रेणी का वह भक्त भी जिसे परम सत्य का ज्ञान नहीं होता और जो केवल श्रद्धापूर्वक भगवान् को नमस्कार करता है, उनका चिन्तन करता है—मन्दिर में उनका दर्शन करता है और विग्रह में चढ़ाने के लिए फूल तथा फल लाता है, वह भी अनजाने ही मुक्त हो जाता है। श्रद्धायान्विता: अर्थात् अत्यन्त भक्तिपूर्वक भक्तगण विग्रह को सम्मान करते तथा सामग्री भेंट करते हैं। राधा-कृष्ण, लक्ष्मी-नारायण तथा सीता-राम के विग्रह भक्तों के लिए अत्यन्त मोहक होते हैं, अत: जब वे मन्दिर में उन्हें सज्जित रूप में देखते हैं, तो भगवान् के विचारों में मग्न हो जाते हैं। यही मुक्ति की दशा है। दूसरे शब्दों में, यहाँ इसकी पुष्टि हुई है कि निम्न श्रेणी का भक्त भी उनकी अपेक्षा दिव्य स्थिति में होता है, जो चिन्तन या अन्य साधनों से मुक्ति का प्रयास करते हैं। यहाँ तक कि शुकदेव गोस्वामी तथा चारों कुमारों जैसे निर्विशेषवादी भी मन्दिर में विग्रहों के सौन्दर्य से, भगवान् पर चढ़ी तुलसी की सुगंधि से मोहित होकर भक्त बन गये। यद्यपि वे मुक्त अवस्था में थे, किन्तु निर्विशेषवादी बने रहने की अपेक्षा वे भगवान् के सौंदर्य पर मोहित होकर भक्त बन गये।
यहाँ पर विलास शब्द उल्लेखनीय है। विलास से भगवान् के कार्यकलाप या लीलाओं का द्योतन होता है। मन्दिर पूजा के कार्यों में यह निश्चित है कि मनुष्य को मन्दिर में भगवान् को सजाधजा देखने ही नहीं जाना चाहिए, अपितु उसे श्रीमद्भागवत, भगवद्गीता या ऐसे ही साहित्य का पाठ सुनना चाहिए जिनका मन्दिर में नियमित पाठ होता है। वृन्दावन में यह प्रथा है कि प्रत्येक मन्दिर में शास्त्रों का वाचन होता है। यहाँ तक कि निम्न श्रेणी के भक्तों को जिनके पास न तो साहित्यिक ज्ञान है, न ही जिन्हें भागवत या भगवद्गीता पढऩे की फुरसत है, उन्हें भगवान् की लीलाओं का श्रवण करने का अवसर मिलता है। इस प्रकार उनके मन निरन्तर भगवान् के विचारों में—उनके रूप, कार्यकलापों तथा उनके दिव्य स्वभाव में डूबे रहते हैं। कृष्णचेतना की यह अवस्था मुक्त अवस्था है। इसीलिए भगवान् चैतन्य ने भक्ति सम्पन्न करने के लिए पाँच विधियों की संस्तुति की—(१) भगवान् के पवित्र नामों का कीर्तन—हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। (२) भक्तों की संगति तथा यथासम्भव उनकी सेवा करना (३) श्रीमद्भागवत सुनना (४) शृंगार किये गये मन्दिर तथा अर्चाविग्रह का दर्शन करना; और सम्भव हो तो; (५) वृन्दावन या मथुरा जैसे स्थान में रहना। इन पाँचों के द्वारा ही भक्त को परम सिद्धावस्था प्राप्त हो सकती है। इसकी पुष्टि भगवद्गीता में और यहाँ पर श्रीमद्भागवत में की गई है। समस्त वैदिक साहित्य स्वीकार करता है कि निम्न कोटि का भी भक्त मुक्ति-लाभ कर सकता है।