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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 25: भक्तियोग की महिमा  »  श्लोक 37
 
 
श्लोक  3.25.37 
अथो विभूतिं मम मायाविनस्ता-
मैश्वर्यमष्टाङ्गमनुप्रवृत्तम् ।
श्रियं भागवतीं वास्पृहयन्ति भद्रां
परस्य मे तेऽश्नुवते तु लोके ॥ ३७ ॥
 
शब्दार्थ
अथो—तब; विभूतिम्—ऐश्वर्य; मम—मेरे; मायाविन:—माया के स्वामी का; ताम्—उस; ऐश्वर्यम्—योग की सिद्धि को; अष्ट-अङ्गम्—आठ अंगों वाली; अनुप्रवृत्तम्—पालन करते हुए; श्रियम्—चमक-दमक; भागवतीम्—ईश्वर के साम्राज्य को; वा—अथवा; अस्पृहयन्ति—कामना नहीं करते; भद्राम्—शुभ; परस्य—परमेश्वर का; मे—मेरा; ते—वे भक्त; अश्नुवते—भोग करते हैं; तु—लेकिन; लोके—इस जीवन में ।.
 
अनुवाद
 
 इस प्रकार मेरे ही विचारों में निमग्न रहने के कारण भक्त को स्वर्गलोक में प्राप्य श्रेष्ठ वर (जिसमें सत्यलोक सम्मिलित है) की भी इच्छा नहीं रह जाती। उसमें योग से प्राप्त होने वाली अष्ट सिद्धियों की भी कामना नहीं रह जाती, न ही वह ईश्वर के धाम पहुँचना चाहता है। तथापि न चाहते हुए भी, इसी जीवन में भक्त प्रदान किए गये उन समस्त वरदानों को भोगता है।
 
तात्पर्य
 माया द्वारा प्रदत्त विभूतियाँ कई प्रकार की होती हैं। हमें इसी लोक में विभिन्न प्रकार के भौतिक सुखोपभोग का अनुभव रहता है, किन्तु यदि कोई उच्चतर लोकों, यथा चन्द्रलोक, सूर्य लोक या इनसे भी ऊँचे महर्लोक, जनलोक या तपोलोक या कि अन्तत: ब्रह्मा द्वारा निवसित सर्वोच्चलोक, सत्यलोक, पहुँच जाय तो वहाँ भौतिक सुखोपभोग के लिए महती सम्भावनाएँ हैं। उदाहरणार्थ, वहाँ पर इस लोक की अपेक्षा जीवन कहीं अधिक दीर्घ है। कहा जाता है कि चन्द्रमा में जीवन अवधि ऐसी है कि हमारे छह मास वहाँ के एक दिन के तुल्य हैं। सर्वोच्चलोक में जीवन की अवधि की हम कल्पना भी नहीं कर सकते। भगवद्गीता में कहा गया है कि ब्रह्मा के बारह घंटे बड़े-से-बड़े गणितज्ञ के लिए अकल्पनीय हैं। ये सभी भगवान् की बहिरंगा शक्ति या माया के वर्णन हैं। इनके अतिरिक्त, अन्य ऐश्वर्य भी हैं, जिन्हें योगी अपनी योगशक्ति से प्राप्त कर सकते हैं। ये सभी भौतिक हैं। भक्त इन समस्त भौतिक भोगों की कामना नहीं करता, यद्यपि ये इच्छा मात्र से उन्हें सुलभ हो सकते हैं। भगवत्कृपा से भक्त इच्छा मात्र से आश्चर्यजनक सफलता प्राप्त कर सकता है, किन्तु वास्तविक भक्त को इन सबकी इच्छा नहीं होती। भगवान् चैतन्य महाप्रभु की शिक्षा है कि मनुष्य को न तो भौतिक ऐश्वर्य या ख्याति की कामना करनी चाहिए न भौतिक सौन्दर्य का भोग करना चाहिए। उसे तो भगवान् की भक्ति में तल्लीन रहने की कामना करनी चाहिए भले ही उसे मुक्ति-लाभ न हो और अनन्त काल तक जन्म-मृत्यु के चक्र में रहना पड़े। किन्तु वास्तव में जो कृष्णभक्ति में लगा रहता है उसकी मुक्ति तो पहले से निश्चित है। भक्तगण स्वर्ग तथा वैकुण्ठलोक के समस्त लाभों का भोग करते हैं। यहाँ पर इसका विशिष्ट रूप से उल्लेख भागवतीं भद्राम् के रूप में हुआ है। वैकुण्ठलोक में सब कुछ नित्य रूप से शान्तिमय है, किन्तु तो भी शुद्ध भक्त वहाँ नहीं जाना चाहता। फिर भी उसे यह लाभ प्राप्त होता है, उसे अपने इस जीवन में भौतिक तथा आध्यात्मिक जगतों की सारी सुविधाएँ भोगने को उपलब्ध हो जाती हैं।
 
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