श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 25: भक्तियोग की महिमा  »  श्लोक 38
 
 
श्लोक  3.25.38 
न कर्हिचिन्मत्परा: शान्तरूपे
नङ्‍क्ष्यन्ति नो मेऽनिमिषो लेढि हेति: ।
येषामहं प्रिय आत्मा सुतश्च
सखा गुरु: सुहृदो दैवमिष्टम् ॥ ३८ ॥
 
शब्दार्थ
न—नहीं; कर्हिचित्—सदैव; मत्-परा:—मेरे भक्त; शान्त-रूपे—हे माता; नङ्क्ष्यन्ति—खो देंगे; नो—नहीं; मे— मेरा; अनिमिष:—समय; लेढि—नष्ट करता है; हेति:—आयुध; येषाम्—जिनका; अहम्—मैं; प्रिय:—प्यारा; आत्मा—स्व; सुत:—पुत्र; च—तथा; सखा—मित्र; गुरु:—शिक्षक; सुहृद:—शुभचिन्तक; दैवम्—देवता, विग्रह; इष्टम्—इष्ट, अभीष्ट ।.
 
अनुवाद
 
 भगवान् ने आगे कहा : हे माते, जो भक्त ऐसा दिव्य ऐश्वर्य प्राप्त कर लेते हैं, वे उससे कभी वंचित नहीं होते। ऐसे ऐश्वर्य को न तो आयुध, न काल-परिवर्तन ही विनष्ट कर सकता है। चूँकि भक्तगण मुझे अपना मित्र, सम्बन्धी, पुत्र, शिक्षक, शुभचिन्तक तथा परमदेव मानते हैं, अत: किसी काल में भी उनसे यह ऐश्वर्य छीना नहीं जा सकता।
 
तात्पर्य
 भगवद्गीता में कहा गया है कि मनुष्य अपने पुण्य कर्मों के प्रभाव से स्वर्गलोक तक, यहाँ तक कि ब्रह्मलोक तक भी पहुँच सकता है, किन्तु जब उन पुण्यकर्मों का प्रभाव (फल) समाप्त हो जाता है, तो उसे इस पृथ्वी पर लौटकर नवीन जीवनकर्म प्रारम्भ करना पड़ता है। इस तरह भले ही कोई सुख-भोग करे तथा दीर्घ जीवन के लिए स्वर्गलोक चला जाय, किन्तु यह स्थायी वास नहीं होता। किन्तु जहाँ तक भक्तों का प्रश्न है, उनकी सम्पत्ति— भक्ति की उपलब्धि तथा वैकुण्ठलोक का ऐश्वर्य—इस लोक में भी कभी नष्ट नहीं होती है। इस श्लोक में कपिलदेव अपनी माता को शान्तरूपा कहकर सम्बोधित करते हैं, जिससे सूचित होता है भक्तों का ऐश्वर्य स्थिर है, क्योंकि भक्तगण वैकुण्ठलोक में निरन्तर स्थित हैं जिसे शान्तरूप कहते हैं। इसमें सतोगुण रहता है, जिसे रजो तथा तमोगुण विचलित नहीं कर सकते। एकबार भगवद्भक्ति में स्थापित हो जाने पर मनुष्य के इस दिव्य सेवा पद को विनष्ट नहीं किया जा सकता, अपितु आनन्द तथा सेवा में अपार वृद्धि होती रहती है। वैकुण्ठलोक में कृष्णभक्ति में संलग्न भक्तों पर काल का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। भौतिक जगत में काल के प्रभाव में सब कुछ विनष्ट हो जाता है, किन्तु वैकुण्ठलोक में न तो काल का प्रभाव पड़ता है न देवताओं का, क्योंकि वैकुण्ठलोक में एक भी देवता नहीं है। इस लोक में हमारे कार्यों का संचालन विभिन्न देवताओं द्वारा होता है, यहाँ तक कि जब हम अपने हाथ तथा पाँव हिलाते हैं, तो इनकी क्रिया देवताओं द्वारा संचालित होती है। किन्तु वैकुण्ठ लोक में न तो देवताओं का कोई प्रभाव है, न काल का। अत: विनाश का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। जब काल तत्त्व उपस्थित हो जाता है, तो विनाश निश्चित होता है, किन्तु जब काल तत्त्व—भूत, वर्तमान या भविष्य—नहीं रहता तो हर वस्तु शाश्वत होती है। अत: इस श्लोक में न नङ्क्ष्यन्ति शब्दों का प्रयोग हुआ है जिनसे सूचित होता है कि दिव्य ऐश्वर्य का कभी विनाश नहीं होता।

विनष्ट न होने के कारण का भी उल्लेख हुआ है। भक्तगण परमेश्वर को अत्यन्त प्रिय विभूति के रूप में स्वीकार करते हैं और उनसे नाना प्रकार से सम्बन्ध स्थापित करते हैं। वे परमेश्वर को सर्वप्रिय मित्र, सर्वप्रिय परिजन, सर्वप्रिय पुत्र, सर्वप्रिय शिक्षक, सर्वप्रिय शुभचिन्तक या सर्वप्रिय देव (विग्रह) के रूप में स्वीकार करते हैं। भगवान् सनातन हैं, अत: उनसे जो कोई सम्बन्ध बनाता है, वह भी सनातन होता है। यहाँ इसकी पुष्टि की गई है कि ऐसे सम्बन्धों को विनष्ट नहीं किया जा सकता, फलत: उन सम्बन्धों के ऐश्वर्य को भी नष्ट नहीं किया जा सकता। प्रत्येक जीव में किसी-न-किसी से प्रेम करने की प्रवृत्ति होती है। हम देखते हैं कि जब किसी के कोई प्रिय नहीं होता तो वह अपने प्रेम को कुत्ता या बिल्ली जैसे पशुओं की ओर मोड़ देता है। इस तरह समस्त जीवों में प्रेम का शाश्वत लगाव प्रेम का विषय खोजने की ओर होता है। इस श्लोक से हम जान सकते हैं कि हम पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् से अपनी प्रियतम वस्तु—मित्र, पुत्र, शिक्षक या शुभचिन्तक के रूप में प्रेम कर सकते हैं, इसमें न तो किसी प्रकार धोखा है और न ऐसे प्रेम का कोई अन्त है। हम भिन्न-भिन्न प्रकारों से भगवान् के साथ सम्बन्धों का आनन्द उठा सकते हैं। इस श्लोक की विशेष बात भगवान् को परम शिक्षक के रूप में ग्रहण करना है। भगवद्गीता का प्रवचन स्वयं भगवान् द्वारा हुआ और अर्जुन ने कृष्ण को अपना गुरु स्वीकार किया। इसी प्रकार हमें भी कृष्ण को ही परम गुरु के रूप में स्वीकार करना चाहिए।

वास्तव में कृष्ण का अर्थ है कृष्ण तथा उनके विश्वस्त भक्तजन; कृष्ण अकेले नहीं हैं। जब हम कृष्ण कहते हैं, तो इससे उनका नाम, रूप, गुण, धाम तथा पार्षदों का अर्थ बोध देता है। कृष्ण कभी अकेले नहीं रहते, क्योंकि कृष्ण के भक्त निर्विशेषवादी नहीं होते। उदाहरणार्थ, राजा सदैव अपने सचिव, सेनापति, दास तथा ऐसे ही लोगों के संग रहता है। ज्योंही हम कृष्ण तथा उनके पार्षदों को अपना शिक्षक मान लेते हैं, तो ऐसा कोई कुप्रभाव नहीं जो हमारे ज्ञान का विनाश कर सके। भौतिक जगत में हमारे द्वारा अर्जित ज्ञान काल के प्रभाव से बदल सकता है, किन्तु पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण के प्रवचन से प्राप्त होने वाले निष्कर्ष, जो हमें भगवद्गीता से मिलते हैं, कभी नहीं बदलते। भगवद्गीता की व्याख्या करने से कोई लाभ नहीं, वह तो शाश्वत है।

भगवान् श्रीकृष्ण को अपना श्रेष्ठ मित्र मानना चाहिए। वे कभी धोखा नहीं देंगे। वे सदैव मित्रवत् सम्मति प्रदान करेंगे और भक्तों की मित्रवत् रक्षा करेंगे। यदि श्रीकृष्ण को पुत्रवत् माना जाय तो वे कभी मरेंगे नहीं। इस संसार में हमारा अत्यन्त प्यारा पुत्र या बच्चा हो सकता है, किन्तु माता, पिता या जो भी उसके प्रति वत्सल है सदैव आशा लगाता है कि मेरा पुत्र मरे नहीं। किन्तु कृष्ण सचमुच कभी नहीं मरते। अत: जो कृष्ण को या भगवान् को अपना पुत्र मान लेते हैं, वे अपने पुत्र से कभी रहित नहीं होते। ऐसे अनेक उदाहरण हैं जहाँ भक्तों ने देव (विग्रह) को अपना पुत्र मान लिया। बंगाल में ऐसे अनेक उदाहरण हैं और भक्त की मृत्यु के बाद भी देव पिता के लिए श्राद्ध संस्कार सम्पन्न करता है। यह सम्बन्ध कभी विनष्ट नहीं होता। लोग तरह-तरह के देवताओं को पूजने के आदी हैं, लेकिन भगवद्गीता में ऐसी प्रवृत्ति की भर्त्सना की गई है, अत: मनुष्य में इतनी बुद्धि तो होनी ही चाहिए कि वह भगवान् की ही पूजा उनके विविध रूपों में, यथा लक्ष्मी-नारायण, सीता-राम तथा राधा-कृष्ण के रूप में करे। इससे कभी धोखा नहीं होगा। देवताओं की पूजा से भले ही किसी को स्वर्ग-लाभ हो जाय, किन्तु भौतिक जगत के प्रलय के समय देव तथा देव का आवास सब कुछ नष्ट हो जाएगा। किन्तु जो प को पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् को पूजता है, वह वैकुण्ठलोक को जाएगा जहाँ काल, विनाश या प्रलय का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। निष्कर्ष यह निकला कि जो भक्त श्रीभगवान् को सब कुछ मान लेते हैं उस पर काल का प्रभाव नहीं पड़ता।

 
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