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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 25: भक्तियोग की महिमा  »  श्लोक 41
 
 
श्लोक  3.25.41 
नान्यत्र मद्भगवत: प्रधानपुरुषेश्वरात् ।
आत्मन: सर्वभूतानां भयं तीव्रं निवर्तते ॥ ४१ ॥
 
शब्दार्थ
—नहीं; अन्यत्र—दूसरा; मत्—मेरे सिवा; भगवत:—श्रीभगवान्; प्रधान-पुरुष-ईश्वरात्—ईश्वर जो प्रकृति तथा पुरुष दोनों है; आत्मन:—आत्मा; सर्व-भूतानाम्—समस्त जीवों में; भयम्—भय; तीव्रम्—विकट; निवर्तते— छुटकारा पाता है ।.
 
अनुवाद
 
 यदि कोई मुझको छोडक़र अन्य की शरण ग्रहण करता है, तो वह जन्म तथा मृत्यु के विकट भय से कभी छुटकारा नहीं पा सकता, क्योंकि मैं सर्वशक्तिमान, परमेश्वर अर्थात् पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्, समस्त सृष्टि का आदि स्रोत तथा समस्त आत्माओं का भी परमात्मा हूँ।
 
तात्पर्य
 यहाँ यह बतलाया गया है कि परमेश्वर का शुद्ध भक्त बने बिना जन्म-मृत्यु के चक्र से छुटकारा नहीं मिल पाता। कहा गया है—हरिं बिना न सृतिं तरन्ति। जन्म-मृत्यु के चक्र को तब तक पार नहीं किया जा सकता जब तक श्रीभगवान् अनुकूल न हों। इसी विचारधारा की पुष्टि यहाँ हुई है। कोई चाहे तो अपने अपूर्ण मानसिक चिन्तन से परम सत्य को जानने की पद्धति अपनावे या योगक्रिया द्वारा स्व का बोध करने का यत्न करे। किन्तु चाहे वह जो भी करे, जब तक वह श्रीभगवान् को पूरी तरह आत्मसमर्पण नहीं कर देता, तब तक कोई भी विधि उसे मुक्ति नहीं दिला सकती। कोई यह पूछ सकता है कि क्या जो लोग दृढ़तापूर्वक विधि-विधानों का पालन करते हुए तपस्या करते हैं, वह सब व्यर्थ है? इसका उत्तर श्रीमद्भागवत (१०.२.३२) में मिलता है—येऽन्येऽरविन्दाक्ष विमुक्तमानिन:। जब श्रीकृष्ण देवकी के गर्भ में थे तो ब्रह्माजी तथा अन्य देवताओं ने भगवान् से प्रार्थना कि, “हे कमलनयन भगवान्! ऐसे भी लोग हैं, जो इस विचार से फूले रहते हैं कि वे मुक्त हो चुके हैं या ईश्वर से उनका तादात्म्य हो चुका है या वे ईश्वर हो गये हैं, किन्तु ऐसा सोचते हुए भी उनका ज्ञान प्रशंसनीय नहीं है। वे अल्पज्ञ हैं।” यह कहा गया है कि उनकी बुद्धि, चाहे उच्च हो या निम्न, शुद्ध भी नहीं होती। शुद्ध बुद्धि होने पर मनुष्य आत्मसमर्पण के अतिरिक्त और कुछ सोच ही नहीं सकता। अत: भगवद्गीता पुष्टि करती है कि अत्यन्त विज्ञ पुरुष में ही शुद्ध बुद्धि का उदय होता है। बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते। जो वास्तव में बुद्धिमान है, वह अनेकानेक जन्मों के बाद परमेश्वर की शरण में जाता है।

शरण में गये बिना किसी को मुक्ति प्राप्त नहीं होती। भागवत का कथन है, “जो लोग अपने आपको किसी भक्तिविहीन विधान से मुक्त मानकर गर्वित रहते हैं, वे शिष्ट अथवा विमल बुद्धि वाले नहीं हैं, क्योंकि उन्होंने अभी तक आपकी शरण नहीं ग्रहण की। वे समस्त प्रकार के संयम एवं तपस्या का पालन करने के बावजूद, अथवा ब्रह्म-साक्षात्कार के निकट पहुँचे बिना ही सोचते हैं कि वे ब्रह्मतेज में स्थित हैं, किन्तु वास्तव में वे भौतिक कर्मों में आ गिरते हैं, क्योंकि उनके कर्म दिव्य नहीं होते।” मनुष्य को केवल इस कोरे ज्ञान से प्रसन्न नहीं हो जाना चाहिए कि वह ब्रह्म है। उसे परब्रह्म की सेवा में लगना चाहिए; वही भक्ति है। ब्रह्म का कार्य है कि वह परब्रह्म की सेवा करे। कहा जाता है कि ब्रह्म बने बिना ब्रह्म की सेवा नहीं की जा सकती। परब्रह्म तो श्रीभगवान् हैं और जीवात्मा भी ब्रह्म है। इस बोध के बिना कि मनुष्य ब्रह्म्, अर्थात् आत्मा, अर्थात् भगवान् का नित्य दास है, यदि कोई इतना ही सोचता है कि वह ब्रह्म है, तो उसका यह बोध केवल सैद्धान्तिक है। अनुभव करने के साथ ही साथ उसे भगवान् की भक्ति में अपने आपको लगाना होता है, तभी वह ब्रह्मपद में स्थित रह सकता है अन्यथा वह नीचे गिर जाता है।

भागवत का कथन है कि अभक्त लोग श्रीभगवान् के चरणकमलों की दिव्य प्रेमाभक्ति की उपेक्षा करते हैं, अत: उनकी बुद्धि संकीर्ण होती है, जिससे ये लोग नीचे गिर जाते हैं। जीवात्मा को कुछ न कुछ कर्म करना चाहिए। यदि वह दिव्य सेवाकर्म नहीं करता तो वह भौतिक कर्म में आ गिरता है। ज्योंही वह भौतिक कर्मों में आ गिरता है, तो जन्म-मरण के चक्र से उसे छुटकारा कोई नहीं दिला सकता। यहाँ पर भगवान् कपिल ने कहा है, “मेरी कृपा के बिना” (नान्यत्र मद् भगवत:)। यहाँ पर प्रभु को भगवान् कहा गया है, जिससे संकेत मिलता है कि वे सर्व ऐश्वर्य-सम्पन्न है, अत: वे मनुष्य को जन्म तथा मरण के चक्र से उद्धार करने में सर्वथा सक्षम हैं। वे प्रधान भी कहलाते हैं, क्योंकि वे परम पुरुष हैं। वे सबों पर समभाव रखते हैं, किन्तु जो उनकी शरण में जाता है उस पर विशेष रूप से अनुकूल रहते हैं। भगवद्गीता में भी पुष्टि की गई है कि भगवान् हर एक के लिए एक समान हैं, न तो कोई उनका शत्रु है और न मित्र। किन्तु जो उनकी शरण ग्रहण कर लेता है, वे उसके ऊपर उनका विशेष झुकाव हो जाता हैं। मात्र उनकी शरण में जाकर मनुष्य जन्म-मृत्यु के चक्र से बाहर निकल सकता है अन्यथा वह इस चक्र में अनेकानेक जन्मों तक पड़ा रहता है और मुक्ति के लिए अनेक बार अन्य विधियों का सहारा लेता है।

 
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