एतावान् एव—इतना ही; लोके अस्मिन्—इस संसार में; पुंसाम्—मनुष्यों का; नि:श्रेयस—जीवन की अन्तिम सिद्धि की; उदय:—प्राप्ति; तीव्रेण—तीव्र; भक्ति-योगेन—भक्ति के अभ्यास से; मन:—मन; मयि—मुझमें; अर्पितम्—लगे हुए; स्थिरम्—स्थिर ।.
अनुवाद
अत: जिन व्यक्तियों के मन भगवान् में स्थिर हैं, वे भक्ति का तीव्र अभ्यास करते हैं। जीवन की अन्तिम सिद्धि प्राप्त करने का यही एकमात्र साधन है।
तात्पर्य
यहाँ पर प्रयुक्त मनो मय्यर्पितम् शब्द महत्त्वपूर्ण हैं जिनका अर्थ है “मुझमें लगे हुए मन।” मनुष्य को भगवान् कृष्ण या उनके अवतार के चरणकमलों पर अपना मन लगाना चाहिए। स्थिर भाव से उनमें लगे रहना ही मुक्ति का साधन है। अम्बरीष महाराज इसके उदाहरण हैं। उन्होंने अपने मन को भगवान् के चरणकमलों में लगाया, वे भगवान् की ही लीलाओं का कथन करते, वे भगवान् पर चढ़े हुए पुष्पों तथा तुलसी को ही सूँघते, वे केवल भगवान् के मन्दिर तक जाते, अपने हाथों से मन्दिर बुहारते, अपनी जीभ का उपयोग भगवान् को अर्पित भोजन के चखने में करते और कानों का उपयोग भगवान् की लीलाओं के सुनने में करते। इस प्रकार उनकी सभी इन्द्रियाँ व्यस्त रहतीं। सर्वप्रथम मन को भगवान् के चरणकमलों में क्रमश: तथा सहज भाव से लगाना चाहिए। चूँकि मन इन्द्रियों का स्वामी है, अत: मन के व्यस्त रहने पर सारी इन्द्रियाँ व्यस्त रहेंगी। यही भक्तियोग है। योग का अर्थ है इन्द्रियों को वश में करना, इन्द्रियों को सही अर्थ में वश में लाना कठिन है, वे सदैव चलायमान रहती हैं। यही हाल एक बच्चे का होता है—उसे कब तक शान्तिपूर्वक बैठाये रखा जा सकता है? यह सम्भव नहीं है। यहाँ तक कि अर्जुन को कहना पड़ा—चञ्चलं हि मन: कृष्ण—मन सदैव चलायमान रहता है। सबसे अच्छा मार्ग यही है कि मन को भगवान् के चरणकमलों में लगा दिया जाय। मनो मय्यर्पितं स्थिरम्। यदि कोई गम्भीरतापूर्वक कृष्णभक्ति में लग जाय तो यही उच्चतम सिद्धावस्था है। समस्त कृष्णभावनाभावित कर्म मानवीय जीव की उच्चतम सिद्धावस्था में होते हैं।
इस प्रकार श्रीमद्भागवत के तृतीय स्कन्ध के अन्तर्गत “भक्तियोग की महिमा” नामक पच्चीसवें अध्याय के भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुए।
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