श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 25: भक्तियोग की महिमा  »  श्लोक 7
 
 
श्लोक  3.25.7 
देवहूतिरुवाच
निर्विण्णा नितरां भूमन्नसदिन्द्रियतर्षणात् ।
येन सम्भाव्यमानेन प्रपन्नान्धं तम: प्रभो ॥ ७ ॥
 
शब्दार्थ
देवहूति: उवाच—देवहूति ने कहा; निर्विण्णा—ऊबी हुई; नितराम्—अत्यधिक; भूमन्—हे भगवान्; असत्— क्षणिक; इन्द्रिय—इन्द्रियों की; तर्षणात्—उत्तेजना से; येन—जिससे; सम्भाव्यमानेन—सम्भव होने से; प्रपन्ना—मैं गिर चुकी हूँ; अन्धम् तम:—अज्ञान के गर्त में; प्रभो—हे प्रभु! ।.
 
अनुवाद
 
 देवहूति ने कहा : हे प्रभु, मैं अपनी इन्द्रियों के विक्षोभ से ऊबी हुई हूँ और इसके फलस्वरूप मैं अज्ञान रूपी अन्धकार के गर्त में गिर गई हूँ।
 
तात्पर्य
 यहाँ पर असत् इन्द्रिय-तर्ष्णात् शब्द सार्थक है। असत् का अर्थ है क्षणिक और इन्द्रिय का अर्थ है इन्द्रियाँ। इस तरह असद्-इन्द्रिय तर्षणात् का अर्थ हुआ “भौतिक शरीर की क्षणिक रूप से प्रकट इन्द्रियों द्वारा क्षुब्ध होकर।” हम भौतिक शरीर के विभिन्न स्तरों से होकर विकसित हो रहे हैं—कभी मानव शरीर में, तो कभी पशु शरीर में रहते हैं—फलत: हमारी इन्द्रियों के कार्य-व्यापार भी बदलते रहते हैं। जो भी वस्तु बदलती है, वह क्षणिक या असत् कहलाती है। हमें यह ज्ञात होना चाहिए कि इन क्षणिक (असत्) इन्द्रियों से परे हमारी स्थायी इन्द्रियाँ होती हैं, जो इस समय भौतिक शरीर से ढकी हुई हैं। स्थायी इन्द्रियाँ पदार्थ से कुलषित होने के कारण सही ढंग से कार्य नहीं करतीं। फलत: इस कलुष (कल्मष) से इन्द्रियों को मुक्त करना ही भक्ति है। जब कल्मष पूर्णत: दूर हो जाता है और इन्द्रियाँ शुद्ध कृष्णचेतना से युक्त होकर कार्य करती हैं, तो हम सद् इन्द्रिय को अर्थात् शाश्वत ऐन्द्रिय कार्य-कलापों को प्राप्त होते हैं। शाश्वत ऐन्द्रिय कार्यकलाप भक्तियोग कहलाते हैं जबकि क्षणिक ऐन्द्रिय कार्य- कलापों को इन्द्रियतृप्ति कहते हैं। जब तक कोई इन्द्रियतृप्ति से ऊब नहीं जाता, तब तक उसे कपिल-जैसे व्यक्ति से दिव्य सन्देश सुनने का सुयोग प्राप्त नहीं होता। देवहूति ने कहा कि वे ऊब गई हैं। चूँकि अब उनके पति ने गृह-त्याग कर दिया है, अत: वे भगवान् कपिल के उपदेशों को सुनकर विश्राम प्राप्त कर सकती हैं।
 
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