श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 26: प्रकृति के मूलभूत सिद्धान्त  »  श्लोक 10
 
 
श्लोक  3.26.10 
श्रीभगवानुवाच
यत्तत्‍त्रिगुणमव्यक्तं नित्यं सदसदात्मकम् ।
प्रधानं प्रकृतिं प्राहुरविशेषं विशेषवत् ॥ १० ॥
 
शब्दार्थ
श्री-भगवान् उवाच—श्रीभगवान् ने कहा; यत्—अब आगे; तत्—वह; त्रि-गुणम्—तीन गुणों का संयोग; अव्यक्तम्—अप्रकट; नित्यम्—शाश्वत; सत्-असत्-आत्मकम्—कार्य तथा कारण से युक्त; प्रधानम्—प्रधान; प्रकृतिम्—प्रकृति; प्राहु:—कहते हैं; अविशेषम्—जिसमें अन्तर न किया जा सके; विशेष-वत्—अन्तर से युक्त ।.
 
अनुवाद
 
 भगवान् ने कहा : तीनों गुणों का अप्रकट शाश्वत संयोग ही प्रकट अवस्था का कारण है और प्रधान कहलाता है। जब यह प्रकट अवस्था में होता है, तो इसे प्रकृति कहते हैं।
 
तात्पर्य
 भगवान् इंगित करते हैं कि प्रकृति सूक्ष्म अवस्था में होती है, जिसे प्रधान कहते हैं और वे इस प्रधान का विवेचन करते हैं। प्रधान एवं प्रकृति की व्याख्या यों है कि प्रधान सूक्ष्म है, समस्त भौतिक तत्त्वों का निर्विशेष सार है। यद्यपि ये निर्विशेष हैं, किन्तु यह समझा जा सकता है कि उसमें सार तत्त्व निहित हैं। जब तीनों गुणों के द्वारा समस्त भौतिक तत्त्व प्रकट होते हैं, तो यही प्राकट्य प्रकृति कहलाती है। निराकारवादी कहते हैं कि ब्रह्म में कोई विविधता व भिन्नता नहीं है। अत: यह कहा जा सकता है कि प्रधान ब्रह्म-अवस्था है, किन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है। प्रधान ब्रह्म से भिन्न है, क्योंकि ब्रह्म में प्रकृति के तीनों गुणों का अस्तित्व नहीं रहता। यह तर्क किया जा सकता है कि महत् तत्त्व भी प्रधान से भिन्न है, क्योंकि महत् तत्त्व में प्राकट्य होता है। किन्तु यहाँ प्रधान की वास्तविक व्याख्या दी गई है। जब कार्य-कारण स्पष्ट रूप से प्रकट नहीं होते (अव्यक्त) तो समस्त तत्त्वों में कोई प्रतिक्रिया नहीं होती और प्रकृति की इस अवस्था को प्रधान कहते हैं। प्रधान कालतत्त्व भी नहीं है, क्योंकि काल में कार्य-कारण, सृष्टि तथा प्रलय होते हैं। न तो यह जीव है, न उपाधिमय बद्धजीव है, क्योंकि जीवों की उपाधियाँ शाश्वत नहीं हैं। इस प्रसंग में नित्य विशेषण के रूप में प्रयुक्त है, जो शाश्वतता का सूचक है। अत: अपने प्राकट्य के पूर्व प्रकृति की अवस्था प्रधान कहलाती है।
 
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