प्रभावम्—प्रभाव; पौरुषम्—भगवान् का; प्राहु:—कहा गया है; कालम्—काल; एके—कुछ; यत:—जिससे; भयम्—भय; अहङ्कार-विमूढस्य—अहंकार से विमूढ़; कर्तु:—आत्मा का; प्रकृतिम्—प्रकृति को; ईयुष:—स्पर्श करके ।.
अनुवाद
पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् का प्रभाव काल में अनुभव किया जाता है, क्योंकि यह भौतिक प्रकृति के सम्पर्क में आने वाले मोहित आत्मा के अहंकार के कारण मृत्यु का भय उत्पन्न करता है।
तात्पर्य
जीव को मृत्यु का भय उसमें देहात्मबोध के कारण अहंकार की उत्पत्ति से होता है। हर कोई मृत्यू से भयभीत रहता है वास्तव में आत्मा की मृत्यु नहीं होती, किन्तु देहात्मबोध के कारण मृत्यु-भय उत्पन्न होता है। श्रीमद्भागवत (११.२.३७) में कहा गया है—भयं द्वितीयाभिनिवेशत: स्यात्। द्वितीय का अर्थ है भौतिक पदार्थ, जो आत्मा के परे है। पदार्थ आत्मा का गौण प्राकट्य है, क्योंकि पदार्थ आत्मा से प्रसूत है। जिस प्रकार यहाँ पर वर्णित भौतिक तत्त्व परमेश्वर या परमात्मा द्वारा उत्पन्न हैं उसी प्रकार शरीर भी आत्मा की उपज है। इसीलिए शरीर को द्वितीय कहा गया है। जब मनुष्य इस द्वितीय तत्त्व या आत्मा के द्वितीय प्रदर्शन में तल्लीन रहता है, तो वह मृत्यु से भयभीत रहता है। जब उसे यह पूर्ण विश्वास हो जाता है कि वह अपना शरीर नहीं है, तो मृत्यु से डरने का प्रश्न ही नहीं उठता क्योंकि आत्मा कभी मरता नहीं।
यदि आत्मा भक्ति के आध्यात्मिक कर्म में लग जाता है, तो वह जन्म तथा मृत्यु से पूर्णतया मुक्त हो जाता है। उसकी अगली स्थिति देह से पूर्ण विमुक्ति होती है। मृत्यु-भय काल का प्रभाव है, जो परमेश्वर के प्रभाव का द्योतक है। दूसरे शब्दों में, काल विध्वंसक है। काल भगवान् का प्रतिनिधित्व करता है और यह हमें इसका भी स्मरण कराता है कि हम ईश्वर की शरण ग्रहण करें। ईश्वर हर बद्धजीव से काल के रूप में बातें करते हैं। भगवान् भगवद्गीता में कहते हैं कि यदि कोई मेरी शरण में आ जाता है, तो फिर जन्म तथा मृत्यु की कोई समस्या नहीं रह जाती। अत: हमें काल को अपने समक्ष खड़े हुए भगवान् के रूप में मानना चाहिए। इसकी विशद व्याख्या अगले श्लोक में की गई है।
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