हे स्वायंभुव-पुत्री, हे माता, जैसा कि मैने बतलाया काल ही श्रीभगवान् है, जिससे उदासीन (समभाव) एवं अप्रकट प्रकृति के गतिमान होने से सृष्टि प्रारम्भ होती है।
तात्पर्य
प्रकृति की अप्रकट अवस्था, प्रधान, की व्याख्या की जा रही है। भगवान् कहते हैं कि जब भगवान् को दृष्टि से यह अप्रकट प्रकृति विक्षुब्ध होती है, तो यह नाना प्रकार से अपने को प्रकट करती है। इस विक्षुब्धावस्था के पूर्व वह निष्क्रिय पड़ी रहती है, उसमें प्रकृति के तीनों गुणों के द्वारा कोई अन्त:क्रिया नहीं होती। दूसरे शब्दों में, भगवान् का सम्पर्क पाये बिना प्रकृति किसी प्रकार का प्राकट्य नहीं कर सकती। भगवद्गीता में इसका अत्यन्त सुन्दर वर्णन हुआ है। श्रीभगवान् प्रकृति के उत्पादों के कारण हैं। उनके सम्पर्क के बिना प्रकृति कुछ भी उत्पन्न नहीं कर सकती।
इस प्रसंग में चैतन्य-चरितामृत में एक अत्यन्त उपयुक्त उदाहरण मिलता है। यद्यपि बकरी के गलस्तन स्तनों जैसे ही प्रतीत होते हैं, किन्तु उनसे दूध नहीं निकलता। इसी प्रकार भौतिक विज्ञानी को यह प्रकृति आश्चर्यजनक ढंग से क्रिया-प्रतिक्रिया करती प्रतीत होती है, किन्तु वास्तव में उत्प्रेरक अर्थात् भगवान् के प्रतिनिधि स्वरूप, काल, के बिना यह कार्य नहीं कर सकती। काल प्रकृति की निष्क्रिय अवस्था (साम्यावस्था) को विक्षुब्ध करता है, जिससे प्रकृति नाना प्रकार से प्रकट होने लगती है। अन्तत: यह कहा जाता है कि भगवान् ही सृष्टि के कारण हैं। जिस प्रकार पुरुष से गर्भधारण किये बिना कोई स्त्री सन्तान उत्पन्न नहीं कर सकती उसी प्रकार यह प्रकृति काल रूप भगवान् से गर्भाधान किये बिना कुछ भी उत्पन्न नहीं कर सकती।
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