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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 26: प्रकृति के मूलभूत सिद्धान्त  »  श्लोक 22
 
 
श्लोक  3.26.22 
स्वच्छत्वमविकारित्वं शान्तत्वमिति चेतस: ।
वृत्तिभिर्लक्षणं प्रोक्तं यथापां प्रकृति: परा ॥ २२ ॥
 
शब्दार्थ
स्वच्छत्वम्—स्वच्छत्व; अविकारित्वम्—विकारों से मुक्ति; शान्तत्वम्—शान्तत्व; इति—इस प्रकार; चेतस:—चेतना का; वृत्तिभि:—गुणों के द्वारा; लक्षणम्—लक्षण; प्रोक्तम्—कहा जाता है; यथा—जिस तरह; अपाम्—जल की; प्रकृति:—स्वाभाविक अवस्था; परा—शुद्ध ।.
 
अनुवाद
 
 महत्-तत्त्व के प्रकट होने के बाद ये वृत्तियाँ एकसाथ प्रकट होती हैं। जिस प्रकार जल पृथ्वी के संसर्ग में आने के पूर्व अपनी स्वाभाविक अवस्था में स्वच्छ, मीठा तथा शान्त रहता है उसी तरह विशुद्ध चेतना के विशिष्ट लक्षण शान्तत्व, स्वच्छत्व तथा अविकारित्व हैं।
 
तात्पर्य
 प्रारम्भ में शुद्ध चेतना या कृष्णचेतना की अवस्था रहती है। सृष्टि के तुरन्त बाद चेतना कलुषित नहीं होती। किन्तु मनुष्य भौतिक रूप से जितना कल्मषग्रस्त होता जाता है उसकी चेतना उतनी ही मलिन होती जाती है। शुद्ध चेतना होने पर भगवान् की किंचित झलक भी दिख जाती है। जिस प्रकार स्वच्छ, शान्त, अशुद्धियों से रहित जल में हर वस्तु साफ-साफ दिखती है उसी तरह शुद्ध चेतना या कृष्णचेतना में वस्तुएँ अपने वास्तविक रूप में दिखती हैं। मनुष्य भगवान् की झलक देख सकता है और अपने अस्तित्व को भी देख सकता है। चेतना की यह अवस्था अत्यन्त सुहावनी, पारदर्शी तथा शान्त होती है। प्रारम्भ में चेतना शुद्ध रहती है।
 
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