महत्तत्त्वाद्विकुर्वाणाद्भगवद्वीर्यसम्भवात् ।
क्रियाशक्तिरहङ्कारस्त्रिविध: समपद्यत ॥ २३ ॥
वैकारिकस्तैजसश्च तामसश्च यतो भव: ।
मनसश्चेन्द्रियाणां च भूतानां महतामपि ॥ २४ ॥
शब्दार्थ
महत्-तत्त्वात्—महत् तत्त्व से; विकुर्वाणात्—विकृत होने से; भगवत्-वीर्य-सम्भवात्—भगवान् की निजी शक्ति से उत्पन्न; क्रिया-शक्ति:—सक्रिय शक्ति से युत; अहङ्कार:—अहंकार; त्रि-विध:—तीन प्रकार का; समपद्यत—उत्पन्न हुआ; वैकारिक:—रूपान्तरित सतोगुण में अहंकार; तैजस:—रजोगुण में अहंकार; च—तथा; तामस:—तमोगुण में अहंकार; च—भी; यत:—जिससे; भव:—उत्पत्ति; मनस:—मन का; च—तथा; इन्द्रियाणाम्—ज्ञान तथा कर्म की इन्द्रियों का; च—तथा; भूतानाम् महताम्—पाँच स्थूल तत्त्वों का; अपि—भी ।.
अनुवाद
महत् तत्त्व से अहंकार उत्पन्न होता है, जो भगवान् की निजी शक्ति से उद्भूत है। अहंकार में मुख्य रूप से तीन प्रकार की क्रियाशक्तियाँ होती हैं—सत्त्व, रज तथा तम। इन्हीं तीन प्रकार के अहंकार से मन, ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियाँ तथा स्थूल तत्त्व उत्पन्न हुए।
तात्पर्य
प्रारम्भ में चेतना या शुद्ध कृष्णचेतनावस्था से पहला कल्मष उत्पन्न हुआ। यह मिथ्या अहंकार या देहात्मबोध कहलाया। जीवात्मा स्वाभाविक स्थिति में कृष्णचेतना की अवस्था में रहता है, किन्तु उसे थोड़ी सी छूट (स्वाधीनता) प्राप्त रहती है, जिससे उसे कृष्ण की विस्मृति हो जाती है। प्रारम्भ में शुद्ध कृष्णचेतना रहती है, किन्तु इस अत्यल्प स्वाधीनता के दुरुपयोग से कृष्ण के भूलने की सम्भावना बनी रहती है। वास्तविक जीवन में ऐसा दिखलाई पड़ता है। ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं जिनमें कोई कृष्णभावनामृत में कर्म करते हुए सहसा बदल जाता है। इसीलिए उपनिषदों का कथन है कि आत्म-साक्षात्कार का मार्ग छूरे की तेज धार के समान है। यह उदाहरण अत्यन्त सटीक है। तेज छूरे से दाढ़ी अच्छी बनती है, किन्तु जरा भी ध्यान इधर-उधर हुआ नहीं कि गाल कट जाता है।
मनुष्य को न केवल शुद्ध कृष्णचेतना तक पहुँचना है, अपितु उसे अत्यन्त सतर्क भी रहना है। तनिक भी असावधानी से पतन हो सकता है। इस पतन का कारण अहंकार होता है। शुद्ध चेतना की दशा से अहंकार का जन्म स्वाधीनता के दुरुपयोग से होता है। हम यह तर्क नहीं कर सकते कि शुद्ध चेतना से किस प्रकार अहंकार का उदय होता है। वास्तविकता तो यह है कि ऐसा होने की सदैव सम्भावना रहती है, अत: मनुष्य को सदैव सतर्क रहना होता है। समस्त भौतिक कार्य-कलापों का मूल सिद्धान्त अहंकार है। ये कार्य भौतिक गुणों में सम्पन्न होते हैं। ज्योंही मनुष्य शुद्ध कृष्णचेतना से विचलित होता है कि भौतिक कार्यों में वह उलझता जाता है। भौतिकवाद का बन्धन मन है और इस मन से इन्द्रियाँ प्रकट होती हैं।
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