श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 26: प्रकृति के मूलभूत सिद्धान्त  »  श्लोक 25
 
 
श्लोक  3.26.25 
सहस्रशिरसं साक्षाद्यमनन्तं प्रचक्षते ।
सङ्कर्षणाख्यं पुरुषं भूतेन्द्रियमनोमयम् ॥ २५ ॥
 
शब्दार्थ
सहस्र-शिरसम्—एक हजार शिरों वाला; साक्षात्—प्रकट रूप में; यम्—जिसको; अनन्तम्—अनन्त; प्रचक्षते— कहते हैं; सङ्कर्षण-आख्यम्—संकर्षण नाम से; पुरुषम्—श्रीभगवान्; भूत—स्थूल तत्त्व; इन्द्रिय—इन्द्रियाँ; मन:- मयम्—मन से युक्त ।.
 
अनुवाद
 
 स्थूल तत्त्वों का स्रोत, इन्द्रियाँ तथा मन—ये ही तीन प्रकार के अहंकार उनसे अमिन्त हैं, क्योंकि अहंकार ही उनका कारण है। यह संकर्षण के नाम से जाना जाता है, जो कि एक हजार शिरों वाले साक्षात् भगवान् अनन्त हैं।
 
 
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