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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 26: प्रकृति के मूलभूत सिद्धान्त  »  श्लोक 29
 
 
श्लोक  3.26.29 
तैजसात्तु विकुर्वाणाद् बुद्धितत्त्वमभूत्सति ।
द्रव्यस्फुरणविज्ञानमिन्द्रियाणामनुग्रह: ॥ २९ ॥
 
शब्दार्थ
तैजसात्—रजोगुणी अहंकार से; तु—तब; विकुर्वाणात्—विकार होने से; बुद्धि—बुद्धि; तत्त्वम्—तत्त्व; अभूत्— जन्म लिया; सति—हे सती; द्रव्य—पदार्थ; स्फुरण—दिखाई पडऩे पर; विज्ञानम्—निश्चित करते हुए; इन्द्रियाणाम्— इन्द्रियों की; अनुग्रह:—सहायता करना ।.
 
अनुवाद
 
 हे सती, रजोगुणी अहंकार में विकार होने से बुद्धि का जन्म होता है। बुद्धि के कार्य हैं दिखाई पडऩे पर पदार्थों की प्रकृति के निर्धारण में सहायता करना और इन्द्रियों की सहायता करना।
 
तात्पर्य
 बुद्धि वह विवेक शक्ति है, जिससे किसी पदार्थ को जाना जा सके और इन्द्रियों को चयन करने में सहायता मिले। इसीलिए बुद्धि को इन्द्रियों का स्वामी माना जाता है। बुद्धि को पूर्णता तब मिलती है जब वह कृष्णभक्ति के कार्यकलापों में स्थिर हो जाती है। बुद्धि के समुचित प्रयोग से मनुष्य की चेतना का विस्तार होता है और चेतना का चरम विस्तार कृष्णभक्ति है।
 
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