बुद्धि के प्रमुख कार्यों में से सन्देह एक है। किसी बात को आँख मूँदकर स्वीकार करना बुद्धि का परिचायक नहीं है। अत: संशय शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। बुद्धि का अनुशीलन करने के लिए मनुष्य को प्रारम्भ में सन्देहयुक्त रहना चाहिए, किन्तु जब उचित साधन से सूचना प्राप्त हो रही हो तो सन्देह करना अनुकूल नहीं होता। भगवद्गीता में भगवान् कहते हैं कि अधिकारी के शब्दों में सन्देह करना विनाश का कारण है। जैसाकि पतञ्जलि योग-पद्धति में बताया गया है—प्रमाण-विपर्यय-विकल्प-निद्रा स्मृतय:। बुद्धि से मनुष्य वस्तुओं को उसी रूप में समझ सकता है जैसे वे हैं। बुद्धि से ही मनुष्य जान सकता है कि वह शरीर है या नहीं। यह ज्ञात करना कि किसी की पहचान भौतिक है या आध्यात्मिक, सन्देहास्पद रहता है। जब वह अपनी वास्तविक स्थिति का विश्लेषण कर पाने में सक्षम होता है, तो झूठे देहात्म-बोध का पता चलता है। यह विपर्यास है। झूठी पहचान का पता चल जाने पर वास्तविक पहचान जानी जा सकती है। वास्तविक ज्ञान को यहाँ निश्चय अथवा सिद्ध व्यावहारिक ज्ञान कहा गया है। यह व्यावहारिक ज्ञान तभी प्राप्त किया जा सकता है जब झूठा ज्ञान समझ में आ चुका हो। व्यावहारिक या सिद्ध ज्ञान से मनुष्य यह जान सकता है कि वह शरीर नहीं अपितु आत्मा है।
स्मृति का अर्थ ‘स्मरणशक्ति’ है और स्वाप का अर्थ ‘निद्रा’ है। बुद्धि को क्रियाशील रखने के लिए निद्रा आवश्यक है। यदि निद्रा न हो, तो मस्तिष्क ठीक से कार्य नहीं कर सकता। भगवद्गीता में यह विशेष रूप से उल्लेख हुआ है कि जो लोग भोजन, नींद तथा शरीर की अन्य आवश्यकताओं को समुचित मात्रा में नियमित कर लेते हैं, वे योगक्रिया में अत्यन्त सफल होते हैं। ये बुद्धि के विश्लेषणात्मक अध्ययन के कुछ पक्ष हैं जिनका वर्णन पतञ्जलि योग-पद्धति तथा कपिलदेव के सांख्य दर्शन में श्रीमद्भागवत् में हुआ है।