श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 26: प्रकृति के मूलभूत सिद्धान्त  »  श्लोक 34
 
 
श्लोक  3.26.34 
भूतानां छिद्रदातृत्वं बहिरन्तरमेव च ।
प्राणेन्द्रियात्मधिष्ण्यत्वं नभसो वृत्तिलक्षणम् ॥ ३४ ॥
 
शब्दार्थ
भूतानाम्—समस्त जीवों का; छिद्र-दातृत्वम्—स्थान देना; बहि:—बाह्य; अन्तरम्—आन्तरिक; एव—भी; च—तथा; प्राण—प्राणवायु का; इन्द्रिय—इन्द्रियाँ; आत्म—तथा मन; धिष्ण्यत्वम्—कर्मक्षेत्र होने से; नभस:—आकाशतत्त्व; वृत्ति—कार्य; लक्षणम्—लक्षण ।.
 
अनुवाद
 
 समस्त जीवों को उनके बाह्य तथा आन्तरिक अस्तित्व के लिए अवकाश (स्थान) प्रदान करना, जैसे कि प्राणवायु, इन्द्रिय एवं मन का कार्यक्षेत्र—ये आकाश तत्त्व के कार्य तथा लक्षण हैं।
 
तात्पर्य
 मन, इन्द्रिय तथा प्राणशक्ति या जीवात्मा के रूप होते हैं भले ही वे इन चर्म चक्षुओं से दिखाई न पड़ें। रूप का आधार आकाश है और आन्तरिक रूप में यह शरीर के भीतर की नसों तथा प्राणवायु के संचरण के रूप में देखा जाता है। बाह्य रूप से इन्द्रियों के अदृश्य रूप होते हैं। अदृश्य इन्द्रियों की उत्पत्ति आकाश तत्त्व का बाह्य कर्म है और प्राणवायु तथा रक्त का संचार आन्तरिक कार्य है। आकाश में सूक्ष्म रूपों के अस्तित्व की पुष्टि आधुनिक विज्ञान द्वारा टेलीविजन सम्प्रेषण के रूप में की गई है, जिसमें एक स्थान के रूपों या चित्रों को आकाश तत्त्व की क्रिया से दूसरे स्थान को प्रेषित किया जाता है। इसकी यहाँ अत्यन्त सुन्दर ढंग से व्याख्या की गई है। यह श्लोक महान् वैज्ञानिक शोध कार्य के लिए महत्त्वपूर्ण आधार है, क्योंकि यह बताता है कि किस प्रकार आकाश तत्त्व से सूक्ष्म रूप उत्पन्न होते हैं, उनके गुण तथा कार्य क्या हैं और किस तरह सूक्ष्म रूप से वायु, अग्नि, जल तथा पृथ्वी जैसे मूर्त तत्त्वों का प्राकट्य होता है। चिन्तन, अनुभव तथा इच्छा जैसे मानसिक या मनोवैज्ञानिक कार्य भी आकाश तत्व के धरातल में सम्पन्न होते हैं। भगवद्गीता का यह कथन कि मृत्यु के समय जैसी मानसिक स्थिति होती है उसी के आधार पर अगला जन्म होता है, इसका भी इस श्लोक में सन्निवेश हुआ है। ज्योंही सूक्ष्म रूप से स्थूल तत्त्वों में विकास का या कल्मष का अवसर प्राप्त होता है कि आन्तरिक (मानसिक) अस्तित्व मूर्त रूप में बदल जाते हैं।
 
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