चालनम्—हिलाना; व्यूहनम्—मिला देना; प्राप्ति:—पहुँचना; नेतृत्वम्—ले जाना; द्रव्य-शब्दयो:—पदार्थों के कण तथा शब्द; सर्व-इन्द्रियाणाम्—समस्त इन्द्रियों के; आत्मत्वम्—ठीक-ठीक कार्य करने के लिए; वायो:—वायु का; कर्म—क्रियाओं से; अभिलक्षणम्—स्पष्ट लक्षण ।.
अनुवाद
गतियों, मिश्रण, शब्द को पदार्थों तथा अन्य इन्द्रिय बोधों तक पहुँचाने एवं अन्य समस्त इन्द्रियों के समुचित कार्य करते रहने के लिए सुविधाएँ प्रदान कराने में वायु की क्रिया लक्षित होती है।
तात्पर्य
जब हम पेड़ों की शाखाओं को हिलते या जमीन पर सूखी पत्तियों को आपस में एकत्र होते देखते हैं, तो हमें वायु की क्रिया का अनुभव होता है। इसी प्रकार वायु की क्रिया से ही शरीर गतिमान होता है और जब वायु अवरुद्ध हो जाती है, तो तमाम रोग फैलते हैं। लकवा, तन्त्रिका अवरोध, पागलपन तथा अन्य रोग वायु के अपर्याप्त संचार के फलस्वरूप उत्पन्न होते हैं। ‘आयुर्वेद’ पद्धति में इन रोगों का इलाज वायु संचार के आधार पर किया जाता है। यदि प्रारम्भ से वायु संचार प्रक्रिया का ध्यान रखा जाय तो ऐसे रोग न हों। आयुर्वेद तथा श्रीमद्भागवत से भी यह स्पष्ट है कि केवल वायु के कारण अनेक क्रियाएँ अन्त: तथा बाह्य रूप से चलती रहती हैं और जैसे ही वायु-संचार में कमी आई नहीं कि ये क्रियाएँ बन्द हो जाती हैं। यहाँ स्पष्ट उल्लेख है—नेतृत्वं द्रव्य-शब्दयो:। क्रिया के ऊपर हमारा प्रभुत्व वायु की गतिशीलता के ही कारण है। यदि वायु का संचार रुक जाय तो हम शब्द सुनकर उस स्थान तक नहीं पहुँच सकते। यदि कोई हमें पुकारता है, तो हम वायु-संचार के ही कारण ध्वनि सुनते हैं और उस स्थान या व्यक्ति तक पहुँच जाते हैं जहाँ से ध्वनि आती है। इस श्लोक में स्पष्ट कहा गया है कि ये सब वायु की गतियों के कारण हैं। गन्ध की पहचान भी वायु की क्रिया के फलस्वरूप होती है।
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