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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 26: प्रकृति के मूलभूत सिद्धान्त  »  श्लोक 39
 
 
श्लोक  3.26.39 
द्रव्याकृतित्वं गुणता व्यक्तिसंस्थात्वमेव च ।
तेजस्त्वं तेजस: साध्वि रूपमात्रस्य वृत्तय: ॥ ३९ ॥
 
शब्दार्थ
द्रव्य—द्रव्य का; आकृतित्वम्—आकार-प्रकार; गुणता—गुण; व्यक्ति-संस्थात्वम्—व्यक्तित्व; एव—भी; —यथा; तेजस्त्वम्—तेज; तेजस:—अग्नि का; साध्वि—हे सती; रूप-मात्रस्य—सूक्ष्म तत्त्व रूप के; वृत्तय:—लक्षण ।.
 
अनुवाद
 
 हे माता, रूप के लक्षण आकार-प्रकार, गुण तथा व्यष्टि से जाने जाते हैं। अग्नि का रूप उसके तेज से जाना जाता है।
 
तात्पर्य
 प्रत्येक रूप जिसकी हम अनुभूति करते हैं उसके विशिष्ट आकार-प्रकार तथा लक्षण होते हैं। किसी विशिष्ट वस्तु की गुणता उसकी उपयोगिता से आँकी जाती है। किन्तु ध्वनि का रूप स्वतन्त्र है। जो रूप अदृश्य हैं उन्हें केवल स्पर्श से जाना जा सकता है; अदृश्य रूप की यह स्वतन्त्र अनुभूति है। दृश्य रूप अपनी संरचना के विश्लेषणात्मक अध्ययन से जाने जाते हैं। किसी पदार्थ की संरचना उसकी आन्तरिक क्रिया से जानी जाती है। उदाहरणार्थ, नमक के स्वरूप को उसके लवणीय स्वाद से और चीनी को उसके मीठे स्वाद की अन्त:क्रियाओं से जाना जाता है। किसी पदार्थ के रूप को समझने के लिए स्वाद तथा गुणात्मक संरचना आधारभूत सिद्धान्त हैं।
 
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