श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 26: प्रकृति के मूलभूत सिद्धान्त  »  श्लोक 40
 
 
श्लोक  3.26.40 
द्योतनं पचनं पानमदनं हिममर्दनम् ।
तेजसो वृत्तयस्त्वेता: शोषणं क्षुत्तृडेव च ॥ ४० ॥
 
शब्दार्थ
द्योतनम्—प्रकाश; पचनम्—पकाना, पचाना; पानम्—पीना; अदनम्—खाना; हिम-मर्दनम्—शीत को विनष्ट करने वाला; तेजस:—अग्नि के; वृत्तय:—कार्य; तु—निस्सन्देह; एता:—ये; शोषणम्—वाष्पीकरण; क्षुत्—भूख; तृट्— प्यास; एव—भी; च—तथा ।.
 
अनुवाद
 
 अग्नि अपने प्रकाश के कारण पकाने, पचाने, शीत नष्ट करने, भाप बनाने की क्षमता के कारण एवं भूख, प्यास, खाने तथा पीने की इच्छा उत्पन्न करने के कारण अनुभव की जाती है।
 
तात्पर्य
 अग्नि का पहला लक्षण है प्रकाश तथा उष्मा का वितरण। अग्नि की उपस्थिति आमाशय में भी अनुभव की जाती है। बिना अग्नि के हम खाये हुए भोजन को पचा नहीं पाते। बिना पाचन के न तो भूख लगती है, न प्यास और न खाने-पीने की शक्ति रहती है। जब अपर्याप्त भूख तथा प्यास रहे तो समझना चाहिए कि जठराग्नि मन्द पड़ गई है और इस अग्नि-मांद्यम् का आयुर्वेदिक उपचार किया जाता है। चूँकि अग्नि का वर्धन पित्तरस के निकलने से होता है, अत: इसका उपचार पित्तरस के उत्सर्जन को बढ़ाना है। इस प्रकार आयुर्वेदिक उपचार भागवत के कथनों का समर्थक है। शीत के प्रभाव को दमित करने में अग्नि का गुण सर्वविदित है। असह्य शीत का सामना अग्नि द्वारा किया जाता है।
 
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