श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 26: प्रकृति के मूलभूत सिद्धान्त  »  श्लोक 45
 
 
श्लोक  3.26.45 
करम्भपूतिसौरभ्यशान्तोग्राम्‍लादिभि: पृथक् ।
द्रव्यावयववैषम्याद्गन्ध एको विभिद्यते ॥ ४५ ॥
 
शब्दार्थ
करम्भ—मिश्रित; पूति—दुर्गन्ध; सौरभ्य—सुगन्धित; शान्त—मृदु; उग्र—तीक्ष्ण, तीव्र; अम्ल—खट्टी; आदिभि:— इत्यादि; पृथक्—भिन्न; द्रव्य—पदार्थ के; अवयव—भागों के; वैषम्यात्—विविधता के अनुसार; गन्ध:—गन्ध; एक:—एक; विभिद्यते—विभाजित होती है ।.
 
अनुवाद
 
 यद्यपि गन्ध एक है, किन्तु सम्बद्ध पदार्थों के अनुपातों के अनुसार अनेक प्रकार की हो जाती है, यथा—मिश्रित, दुर्गंध, सुगन्धित, मृदु, तीव्र, अम्लीय इत्यादि।
 
तात्पर्य
 कभी-कभी विभिन्न अवयवों से तैयार किये गये भोज्य पदार्थों में मिश्रित गन्ध आती है—यथा तरकारियों में मसाले तथा हींग मिलाने से। गन्दे स्थानों से दुर्गन्ध आती है; कपूर, पुदीना तथा अन्य पदार्थों से अच्छी महक (सुगन्ध) आती है; प्याज तथा लहसुन से तीक्ष्ण गन्ध आती है और हल्दी तथा अन्य खट्टी वस्तुओं से अम्लीय (खट्टी) गंध आती है। मूल गंध तो पृथ्वी से निकलने वाली महक है और जब यह विभिन्न पदार्थों से मिल जाती है, तो विविध रूपों में प्रकट होती है।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥