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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 26: प्रकृति के मूलभूत सिद्धान्त  »  श्लोक 5
 
 
श्लोक  3.26.5 
गुणैर्विचित्रा: सृजतीं सरूपा: प्रकृतिं प्रजा: ।
विलोक्य मुमुहे सद्य: स इह ज्ञानगूहया ॥ ५ ॥
 
शब्दार्थ
गुणै:—तीनों गुणों से; विचित्रा:—विविध प्रकार का; सृजतीम्—उत्पन्न करती हुई; स-रूपा:—रूपों सहित; प्रकृतिम्—प्रकृति; प्रजा:—जीवात्माएँ; विलोक्य—देखकर; मुमुहे—मोहग्रस्त था; सद्य:—तुरन्त; स:—जीवात्मा; इह—इस संसार में; ज्ञान-गूहया—ज्ञान-आवरण के गुण से ।.
 
अनुवाद
 
 अपने तीन गुणों से अनेक प्रकारों में विभक्त यह भौतिक प्रकृति जीवों के स्वरूपों को उत्पन्न करती है और इसे देखकर सारे जीव माया के ज्ञान-आच्छादक गुण से मोहग्रस्त हो जाते हैं।
 
तात्पर्य
 माया में ज्ञान को आच्छादित करने की शक्ति है, किन्तु इस आवरण (आच्छादन) को भगवान् पर लागू नहीं किया जा सकता। यह केवल प्रजा: या भौतिक शरीर के साथ पैदा हुए हैं, अर्थात् बद्धजीवों पर ही लागू होता है। जैसाकि भगवद्गीता तथा अन्य वैदिक साहित्य में कहा गया है, विभिन्न प्रकार के जीव प्रकृति के गुणों के अनुसार भिन्न-भिन्न होते हैं। भगवद्गीता (७.१२) में बहुत अच्छी तरह व्याख्या की गई है कि यद्यपि सतो, रजो तथा तमोगुण भगवान् से उत्पन्न हैं, किन्तु भगवान् इनके अधीन नहीं होते। दूसरे शब्दों में, श्रीभगवान् से उद्भूत शक्ति उन पर प्रभाव नहीं डाल सकती, वह बद्धजीवों पर प्रभाव डालती है, जो भौतिक शक्ति से आच्छादित रहते हैं। भगवान् समस्त जीवों के पिता हैं, क्योंकि वे भौतिक शक्ति में जीवों का गर्भाधान करते हैं। इसीलिए बद्धजीवों को भौतिक शक्ति से उत्पन्न शरीर प्राप्त होते हैं जबकि इन जीवों का पिता तीनों गुणों से पृथक् ही रहता है।

पिछले श्लोक में कहा गया है कि भगवान् ने भौतिक शक्ति को इसलिए स्वीकार किया जिससे वे उन जीवों को लीलाएँ दिखा सकें जो उनका आनन्द लेना चाहती हैं और भौतिक शक्ति पर अधिकार जताना चाहती हैं। यह संसार ऐसे जीवों के तथाकथित भोग के लिए भगवान् की भौतिक शक्ति से उत्पन्न किया गया है। बद्धजीवों के कष्टों के लिए इस भौतिक जगत की उत्पत्ति क्यों हुई यह अत्यन्त जटिल प्रश्न है। पिछले श्लोक के लीलया शब्द में जिसका अर्थ “भगवान् की लीलाओं के लिए” है इसका संकेत मिलता है। भगवान् बद्धजीवों के भोगपरक स्वभाव को सुधारना चाहते हैं। भगवद्गीता में कहा गया है कि भगवान् ही एकमात्र भोक्ता हैं। अत: यह भौतिक शक्ति उसके लिए उत्पन्न की गई है, जो भोग करने का स्वाँग भरता है। यहाँ एक उदाहरण उपयुक्त होगा सरकार को पृथक् पुलिस विभाग की आवश्यकता नहीं पड़ती, किन्तु यह वास्तविकता है कि कुछ नागरिक राज्य के नियमों का पालन नहीं करेंगे, अत: आततायियों से निपटना आवश्यक हो जाता है। आवश्यकता न रहने पर भी आवश्यकता रहती है। इसी प्रकार बद्धजीवों को कष्ट देने के लिए इस भौतिक जगत को उत्पन्न करने की कोई आवश्यकता न थी, किन्तु साथ ही कुछ ऐसे लोग हैं, जो नित्यबद्ध हैं अर्थात् निरन्तर बद्ध रहते हैं। हम कहते हैं कि वे अनादि काल से बद्ध रहे हैं, क्योंकि कोई यह नहीं पता लगा सकता कि जीव, जो परमेश्वर का भिन्नांश है, कब भगवान् की श्रेष्ठता के प्रति विद्रोही बन गया।

वस्तुत: मनुष्यों की दो श्रेणियाँ हैं, वे जो भगवान् के नियमों के पालक हैं और वे जो नास्तिक हैं तथा ईश्वर के अस्तित्व को न मानते हुए अपने नियम बनाना चाहते हैं। वे यह सिद्ध करना चाहते हैं कि हर व्यक्ति अपने नियम या अपना धर्म-पंथ बना सकता है। इन दोनों श्रेणियों के अस्तित्व के प्रारम्भ को जाने बिना हम यह निश्चित रूप से मान सकते हैं कि कुछ जीवों ने भगवान् के नियमों के विरुद्ध विद्रोह किया होगा। ऐसे जीव बद्धजीव कहलाते हैं, क्योंकि वे तीनों गुणों से बँधे होते हैं। इसीलिए यहाँ पर गुणैर्विचित्रा: शब्द व्यवहृत हुए हैं।

इस संसार में चौरासी लाख योनियाँ हैं। आत्माओं के रूप में ये सभी इस जगत से परे हैं। तो फिर वे जीवन की विभिन्न अवस्थाओं में अपने आपको क्यों प्रदर्शित करते हैं? इसका यहाँ उत्तर दिया गया है। वे प्रकृति के तीन गुणों के चक्र के अधीन रहते हैं। चूँकि उनकी उत्पत्ति भौतिक शक्ति से हुई, अत: उनके शरीर भौतिक तत्त्वों से बने होते हैं। भौतिक शरीर से आच्छदित होने के कारण आध्यात्मिक स्वरूप समाप्त हो जाता है। इसीलिए यहाँ पर मुमुहे शब्द प्रयुक्त हुआ है, जिससे इंगित होता है कि वे अपना आध्यात्मिक स्वरूप भूल गये हैं। आध्यात्मिक स्वरूप की यह विस्मृति जीवों में पाई जाती है, क्योंकि वे प्रकृति की शक्ति से आच्छादित होने के कारण बद्ध रहते हैं। एक अन्य शब्द भी प्रयुक्त हुआ है ज्ञान गूहया। गूहा का अर्थ है आवरण। चूँकि छोटे-छोटे बद्धजीवों का ज्ञान आच्छादित रहता है, अत: वे अनेक योनियों में प्रकट होते हैं। श्रीमद्भागवत के प्रथम स्कंध के सातवें अध्याय में कहा गया है, “जीव भौतिक शक्ति से मोहित रहते हैं।” वेदों में भी कहा गया है कि शाश्वत जीवात्माएँ विभिन्न गुणों से आच्छादित रहती हैं और वे तिरंगी जीव लाल, सफेद तथा नीली कहलाती हैं। लाल रंग रजोगुण का प्रतीक है, श्वेत सतोगुण का और नीला तमोगुण का प्रतीक है। ये प्रकृति के गुण भौतिक शक्ति से सम्बन्धित होते हैं, फलत: विभिन्न गुणों के अन्तर्गत जीव भिन्न प्रकार के शरीर पाते हैं। चूँकि वे अपनी आध्यात्मिक पहचान के प्रति विस्मरणशील रहते हैं, अत: शरीरों को आत्मा (स्व) मानते हैं। बद्धजीव के लिए ‘मुझ’ का अर्थ शरीर है। यह मोह कहलाता है।

कठोपनिषद् में बारम्बार कहा गया है कि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कभी भी भौतिक प्रकृति द्वारा प्रभावित नहीं होते। वे तो दर असल बद्धजीव या परमेश्वर के अत्यन्त सूक्ष्म अंश हैं जिन पर भौतिक प्रकृति का प्रभाव पड़ता है और जो भौतिक गुणों के अधीन विभिन्न शरीरों में दिखाई पड़ते हैं।

 
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