श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 26: प्रकृति के मूलभूत सिद्धान्त  »  श्लोक 52
 
 
श्लोक  3.26.52 
एतदण्डं विशेषाख्यं क्रमवृद्धैर्दशोत्तरै: ।
तोयादिभि: परिवृतं प्रधानेनावृतैर्बहि: ।
यत्र लोकवितानोऽयं रूपं भगवतो हरे: ॥ ५२ ॥
 
शब्दार्थ
एतत्—यह; अण्डम्—अण्डा; विशेष-आख्यम्—‘विशेष’ कहलाने वाला; क्रम—एक के पश्चात् एक, क्रमश:; वृद्धै:—बढ़ा; दश—दसगुना; उत्तरै:—अधिक बड़ा; तोय-आदिभि:—जल इत्यादि के द्वारा; परिवृतम्—घिरा हुआ; प्रधानेन—प्रधान के द्वारा; आवृतै:—ढका हुआ; बहि:—बाहर से; यत्र—यहाँ; लोक-वितान:—लोकों का विस्तार; अयम्—यह; रूपम्—रूप; भगवत:—श्रीभगवान् का; हरे:—भगवान् हरि का ।.
 
अनुवाद
 
 यह अण्डाकार ब्रह्माण्ड भौतिक शक्ति का प्राकट्य कहलाता है। जल, वायु, अग्नि, आकाश, अहंकार तथा महत्-तत्त्व की इसकी परतें (स्तर) क्रमश: मोटी होती जाती हैं। प्रत्येक परत अपने से पूर्ववाली से दसगुनी मोटी होती है और अन्तिम बाह्य परत ‘प्रधान’ से घिरी हुई है। इस अण्डे के भीतर भगवान् हरि का विराट रूप रहता है, जिनके शरीर के अंग चौदहों लोक हैं।
 
तात्पर्य
 यह ब्रह्माण्ड या ब्रह्माण्डीय-आकाश जिसकी कल्पना हम उसके असंख्य लोकों समेत करते हैं, एक अंडे के समान आकार वाला है। जिस तरह अंडा एक कवच से घिरा रहता है उसी तरह यह ब्रह्माण्ड भी विविध परतों (स्तरों) से घिरा है। इसकी पहली परत जल है, दूसरी अग्नि, फिर वायु, तब आकाश और अन्तिम परत है ‘प्रधान’। इस अण्डाकार ब्रह्माण्ड के भीतर विराट-पुरुष के रूप में भगवान् का विराट रूप है। सारे लोक उनके शरीर के अंग हैं। इसकी व्याख्या श्रीमद्भागवत के द्वितीय स्कंध में पहले ही की जा चुकी है। सारे लोक भगवान् के इस विराट रूप के विभिन्न अंग माने जाते हैं। जो लोग भगवान् के दिव्यरूप की प्रत्यक्ष पूजा में नहीं लग पाते उन्हें चाहिए कि वे इस विराट रूप का चिन्तन करें और पूजा करें। निम्नतम लोक, पाताल, परमेश्वर का तलवा माना जाता है और पृथ्वी उनका उदर मानी जाती है। उच्चतम लोक, जहाँ ब्रह्माजी रहते हैं, बह्मलोक है, जिसे भगवान् का मस्तक समझा जाता है।

यह विराट-पुरुष भगवान् का अवतार माना जाता है। भगवान् का आदिरूप तो श्रीकृष्ण हैं। जैसाकि ब्रह्म-संहिता में आदि-पुरुष कहकर पुष्टि की गई है। विराट-पुरुष भी पुरुष है, किन्तु वह आदि-पुरुष नहीं है। आदि-पुरुष तो श्रीकृष्ण हैं। ईश्वर:परम:कृष्ण:सच्चिदानन्दविग्रह:। अनादिरादिर्गोविन्द:।

भगवद्गीता में भी कृष्ण को आदिपुरुष के रूप में स्वीकार किया गया है। कृष्ण कहते हैं “मुझसे बड़ा कोई नहीं है।” भगवान् के असंख्य विस्तार हैं और वे सभी पुरुष अर्थात् भोक्ता हैं, किन्तु इनमें से कोई भी न तो विराट-पुरुष है न पुरुष-अवतार—कारणोदकशायी विष्णु, गर्भोदकशायी विष्णु तथा क्षीरोदकशायी विष्णु—हैं और न अन्य विस्तारों में से कोई भी आदि है। प्रत्येक ब्रह्माण्ड में गर्भोदकशायी विष्णु, विराट-पुरुष तथा क्षीरोदकशायी विष्णु होते हैं। यहाँ पर विराट-पुरुष के सक्रिय प्राकट्य का वर्णन हुआ है। जो लोग भगवान् के विषय में निम्नस्तर का ज्ञान रखते हैं, उन्हें चाहिए कि वे भगवान् के विराट रूप का चिन्तन करें, क्योंकि ‘भागवत’ में इसका उपदेश दिया गया है।

यहाँ पर ब्रह्माण्ड के आकार-प्रकार का अनुमान लगाया गया है। इसका बाह्य आवरण जल, वायु, अग्नि, आकाश, अहंकार तथा महत् तत्त्व की परतों से बना हुआ है और प्रत्येक परत इसके पहलेवाली परत से दसगुनी बड़ी है। ब्रह्माण्ड के खोखले के भीतर का अवकाश किसी मानवीय विज्ञानी या अन्य किसी के द्वारा मापा नहीं जा सकता। इस खोखले के आगे सात आवरण हैं जिनमें से प्रत्येक अपने से पीछे वाली परत से दसगुना बड़ा है। जल की परत ब्रह्माण्ड के व्यास से दसगुनी बड़ी है और अग्नि की परत जल की परत से दसगुनी बड़ी है। इसी प्रकार वायु की परत अग्नि की परत से दसगुनी है। ये आकार-प्रकार मनुष्य के लघु मस्तिष्क के लिए अकल्पनीय हैं।

यह भी कहा गया है कि यह वर्णन मात्र एक अण्डाकार ब्रह्माण्ड का है। इसके अतिरिक्त असंख्य ब्रह्माण्ड हैं और इनमें से कुछ तो कई गुना बड़े हैं। वास्तव में माना जाता है कि यह ब्रह्माण्ड सबसे छोटा है, फलत: इसके प्रबन्ध के लिए प्रमुख अधिष्ठाता अथवा ब्रह्मा के केवल चार सिर हैं। अन्य ब्रह्माण्डों में जो इससे बहुत बड़े हैं ब्रह्मा के और अधिक सिर होते हैं। चैतन्य-चरितामृत में कहा गया है कि एक दिन ये सारे ब्रह्मा भगवान् कृष्ण द्वारा बुलाये गये और जब लघु ब्रह्मा ने बृहद् ब्रह्मा को देखा तो मानो उस पर वज्रपात हो गया। ऐसी है भगवान् की अचिन्त्य शक्ति। कोई भी चिन्तन द्वारा या ईश्वर के साथ मिथ्या ऐक्य द्वारा ईश्वर की लम्बाई-चौड़ाई नहीं नाप सकता। यदि कोई प्रयास करता है, तो यह पागलपन का द्योतक है।

 
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