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श्लोक 3.26.53  |
हिरण्मयादण्डकोशादुत्थाय सलिलेशयात् ।
तमाविश्य महादेवो बहुधा निर्बिभेद खम् ॥ ५३ ॥ |
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शब्दार्थ |
हिरण्मयात्—सुनहले; अण्ड-कोशात्—अण्डे से; उत्थाय—निकल कर; सलिले—जल में; शयात्—लेटे हुए; तम्—उस; आविश्य—घुसकर; महा-देव:—श्रीभगवान्; बहुधा—कई प्रकार से; निर्बिभेद—बाँट दिया; खम्— छिद्र ।. |
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अनुवाद |
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विराट-पुरुष, श्रीभगवान् उस सुनहले अंडे में स्थित हो गये जो जल में पड़ा हुआ था और उन्होंने उसे कई विभागों में बाँट दिया। |
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