श्रीमद् भागवतम
 
हिंदी में पढ़े और सुनें
भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 26: प्रकृति के मूलभूत सिद्धान्त  »  श्लोक 55
 
 
श्लोक  3.26.55 
घ्राणाद्वायुरभिद्येतामक्षिणी चक्षुरेतयो: ।
तस्मात्सूर्यो न्यभिद्येतां कर्णौ श्रोत्रं ततो दिश: ॥ ५५ ॥
 
शब्दार्थ
घ्राणात्—घ्राणेन्द्रिय से; वायु:—वायुदेव; अभिद्येताम्—प्रकट हुआ; अक्षिणी—दो नेत्र; चक्षु:—चक्षु इन्द्रिय; एतयो:—इनमें; तस्मात्—उससे; सूर्य:—सूर्यदेव; न्यभिद्येताम्—प्रकट हुए; कर्णौ—दो कान; श्रोत्रम्—श्रवणेन्द्रिय; तत:—उससे; दिश:—दिशाओं के अधिष्ठाता ।.
 
अनुवाद
 
 घ्राणेन्द्रिय के बाद उसका अधिष्ठाता वायुदेव प्रकट हुआ। तत्पश्चात् विराट रूप में दो चक्षु और उनमें चक्षु-इन्द्रिय प्रकट हुई। इसके अनन्तर चक्षुओं का अधिष्ठाता सूर्यदेव प्रकट हुआ। फिर उनके दो कान और उनमें कर्णेन्द्रिय तथा दिशाओं के अधिष्ठाता दिग्देवता प्रकट हुए।
 
तात्पर्य
 भगवान् के विराट रूप में विभिन्न शारीरिक अंगों एवं इन अंगों के अधिष्ठाता देवों के प्राकट्य का वर्णन किया जा रहा हा। जिस प्रकार माता के गर्भ में शिशु के विभिन्न शारीरिक अंगों का विकास होता है, उसी प्रकार ब्रह्माण्ड के गर्भ में भगवान् के विराट रूप में विविध सामग्रियों की उत्पत्ति होती है। जब इन्द्रियाँ प्रकट होती हैं, तो प्रत्येक पर उनका अधिष्ठाता देव रहता है। इसकी पुष्टि भागवत के इस कथन से तथा ब्रह्म-संहिता से भी होती है कि भगवान् के विराट रूप के नेत्रों के रूप में सूर्य प्रकट होता है। सूर्य विराट रूप के नेत्रों पर आश्रित है। ब्रह्म-संहिता का यह भी कथन है कि सूर्य श्रीभगवान् कृष्ण का नेत्र है। यच्चक्षुरेष सविता। सविता का अर्थ सूर्य है। सूर्य भगवान् का नेत्र है। वास्तव में, प्रत्येक वस्तु की उत्पत्ति परमेश्वर के शरीर से होती है। प्रकृति पदार्थों की पूर्तिकर्त्री मात्र है। सृष्टि तो परमेश्वर द्वारा की जाती है जैसाकि भगवद्गीता (९.१०) में पुष्टि हुई है—मयाध्यक्षेण प्रकृति: सूयते सचराचरम्—इस दृश्य जगत में प्रकृति मेरी अध्यक्षता में समस्त चर तथा अचर वस्तुओं को उत्पन्न करती है।
 
शेयर करें
       
 
  All glories to Srila Prabhupada. All glories to वैष्णव भक्त-वृंद
  Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.

 
About Us | Terms & Conditions
Privacy Policy | Refund Policy
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥