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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 26: प्रकृति के मूलभूत सिद्धान्त  »  श्लोक 56
 
 
श्लोक  3.26.56 
निर्बिभेद विराजस्त्वग्रोमश्मश्रवादयस्तत: ।
तत ओषधयश्चासन् शिश्नं निर्बिभिदे तत: ॥ ५६ ॥
 
शब्दार्थ
निर्बिभेद—प्रकट हुआ; विराज:—विराट रूप का; त्वक्—त्वचा, चमड़ी; रोम—बाल; श्मश्रु—दाढ़ी, मँूछ; आदय:—इत्यादि; तत:—तब; तत:—उस पर; ओषधय:—जड़ी-बूटियाँ; —यथा; आसन्—प्रकट हुईं; शिश्नम्—लिंग; निर्बिभिदे—प्रकट हुआ; तत:—इसके बाद ।.
 
अनुवाद
 
 तब भगवान् के विराट रूप, विराट पुरुष ने अपनी त्वचा प्रकट की और उस पर बाल (रोम), मूँछ तथा दाढ़ी निकल आये। तत्पश्चात् सारी जड़ी-बूटियाँ प्रकट हुईं और तब जननेन्द्रियाँ भी प्रकट हुई।
 
तात्पर्य
 त्वचा स्पर्श अनुभूति का स्थान है। जो देवता जड़ी-बूटियों के उत्पादन का नियन्त्रण करते हैं, वे त्वगेन्द्रिय के अधिष्ठाता हैं।
 
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