अपनी विस्मृति के कारण दिव्य जीवात्मा प्रकृति के प्रभाव को अपना कर्मक्षेत्र मान बैठता है और इस प्रकार प्रेरित होकर त्रुटिवश अपने को कर्मों का कर्ता मानता है।
तात्पर्य
भुलक्कड़ जीव की तुलना उस व्यक्ति से की जा सकती है, जो रोग के कारण पगला जाता है अथवा जिसे भूत लग गया हो और जो अनियन्त्रित कर्म करते हुए भी अपने को नियन्त्रित समझता है। प्रकृति के वशीभूत होकर बद्धजीव भौतिक चेतना में लीन रहता है। इस चेतना में बद्धजीव भौतिकशक्ति के वशीभूत होकर जो भी करता है उसे वह आत्म-प्रेरित मान बैठता है। वास्तव में आत्मा को अपनी शुद्ध अवस्था में कृष्णचेतना में रहना चाहिए। जब कोई व्यक्ति कृष्णचेतना में कार्य नहीं करता तो समझा जाता है कि वह भौतिक चेतना में कार्य कर रहा है। चेतना मारी नहीं जा सकती, क्योंकि जीव का लक्षण ही चेतना है। भौतिक चेतना को केवल शुद्ध करना पड़ता है। कृष्ण या परमेश्वर को स्वामी के रूप में स्वीकर करने तथा अपनी चेतना को भौतिक से कृष्णचेतना में बदल देने से मनुष्य मुक्त हो जाता है।
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