श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 26: प्रकृति के मूलभूत सिद्धान्त  »  श्लोक 62
 
 
श्लोक  3.26.62 
एते ह्यभ्युत्थिता देवा नैवास्योत्थापनेऽशकन् ।
पुनराविविशु: खानि तमुत्थापयितुं क्रमात् ॥ ६२ ॥
 
शब्दार्थ
एते—ये; हि—निस्सन्देह; अभ्युत्थिता:—उत्पन्न; देवा:—देवता; न—नहीं; एव—रंचमात्र; अस्य—विराट-पुरुष का; उत्थापने—जगाने में; अशकन्—समर्थ; पुन:—फिर; आविविशु:—प्रविष्ट कर गये; खानि—शरीर के छिद्रों में; तम्—उसको; उत्थापयितुम्—जगाने में; क्रमात्—क्रमश: ।.
 
अनुवाद
 
 इस तरह जब देवता तथा विभिन्न इन्द्रियों के अधिष्ठाता देव प्रकट हो चुके, तो उन सबों ने अपने-अपने उत्पत्ति स्थान को जगाना चाहा। किन्तु ऐसा न कर सकने के कारण वे विराट-पुरुष को जगाने के उद्देश्य से उनके शरीर में एक-एक करके पुन: प्रविष्ट हो गये।
 
तात्पर्य
 भीतर सोते हुए अधिष्ठाता देव को जगाने के लिए मनुष्य को अपने ऐन्द्रिक कर्मों को बाहर से मोडक़र भीतर ले जाना होता है। अगले श्लोकों में विराट-पुरुष को जगाने के लिए जिन ऐन्द्रिक कर्मों की आवश्यकता होती है उनका सुन्दर वर्णन किया गया है।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥