भौतिक चेतना ही मनुष्य के बद्धजीवन का कारण है, जिसमें परिस्थितियाँ जीव पर हाबी हो जाती हैं। यद्यपि आत्मा कुछ भी नहीं करता और ऐसे कर्मों से परे रहता है, किन्तु इस प्रकार वह बद्धजीवन से प्रभावित होता है।
तात्पर्य
मायावादी विचारक, जो परम आत्मा तथा व्यष्टि आत्मा में अन्तर नहीं कर पाता, कहता है कि जीव की बद्धावस्था उसकी लीला है। किन्तु लीला का अर्थ है भगवान् के कार्यकलापों में नियोजित होना। मायावादी इस शब्द का गलत प्रयोग करते हैं और कहते हैं कि भले ही जीव मलभक्षी शूकर क्यों न बन जावे, वह अपनी लीलाओं का आनन्द भोगता है। यह अत्यंत घातक व्याख्या है। वस्तुत: परमेश्वर समस्त जीवों के नायक तथा पालक हैं। उनकी लीलाएँ किसी भी भौतिक कार्य से परे हैं। भगवान् की ऐसी लीलाओं को जीव के बद्धकर्मों तक घसीट कर नीचे नहीं लाया जा सकता। बद्धजीवन में जीव भौतिक शक्ति के हाथों में बन्दी जैसा बना रहता है। भौतिक शक्ति जो भी कराती है, बद्धजीव करता है। उसका अपना कोई उत्तरदायित्व नहीं रहता, वह कर्म का साक्षी मात्र रहता है। किन्तु उसे कृष्ण के साथ अपने शाश्वत सम्बन्ध को न समझने के अपराध में ऐसा करने के लिए बाध्य किया जाता है। इसीलिए भगवान् कृष्ण भगवद्गीता में कहते हैं कि माया इतनी प्रबल है कि वह दुर्लंघ्य होती है। किन्तु यदि जीव केवल इतना ही जान ले कि उसकी स्वाभाविक स्थिति कृष्ण की सेवा करना है और यदि वह इस नियम के अनुसार कार्य करता चले तो वह कितना ही बद्ध क्यों न रहे, माया का प्रभाव तुरन्त दूर हो जाता है। भगवद्गीता के सप्तम अध्याय में इसका स्पष्ट कथन हुआ है। जो कोई असहाय होने के कारण कृष्ण की शरण लेता है, उसका भार कृष्ण ले लेते हैं और इस तरह माया का प्रभाव मिट जाता है।
आत्मा वास्तव में सच्चिदानन्द है शाश्वत, आनन्द तथा ज्ञान से पूर्ण है। किन्तु माया के चंगुल में वह बारम्बार जन्म, मृत्यु, रोग तथा वृद्धावस्था का कष्ट पाता है। मनुष्य को इस सांसारिक परिस्थिति से निबटने तथा अपने आपको कृष्णभक्ति तक लाने के लिए उद्योगशील रहना होता है, क्योंकि इस तरह उसके दीर्घकालीन कष्टों का सहज ही अन्त हो सकता है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि बद्धजीव को जो कष्ट मिलता है, वह प्रकृति के प्रति उसकी आसक्ति के फलस्वरूप होता है। इसलिए इस आसक्ति को जड़ पदार्थ से श्रीकृष्ण में स्थानान्तरित कर दिया जाना चाहिए।
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