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श्लोक  |
चित्तेन हृदयं चैत्य: क्षेत्रज्ञ: प्राविशद्यदा ।
विराट् तदैव पुरुष: सलिलादुदतिष्ठत ॥ ७० ॥ |
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शब्दार्थ |
चित्तेन—चेतना या तर्क से; हृदयम्—हृदय में; चैत्य:—चेतना का अधिष्ठाता देव; क्षेत्र-ज्ञ:—क्षेत्र को जानने वाला; प्राविशत्—घुसा; यदा—जब; विराट्—विराट-पुरुष; तदा—तब; एव—ही; पुरुष:—विराट्-पुरुष; सलिलात्— जल से; उदतिष्ठत—उठ गया ।. |
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अनुवाद |
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किन्तु जब चेतना का अधिष्ठाता, अन्त:करण का नियामक, तर्क के साथ हृदय में प्रविष्ठ हुआ तो उसी क्षण विराट-पुरुष कारणार्णव से उठ खड़ा हुआ। |
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