श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 26: प्रकृति के मूलभूत सिद्धान्त  »  श्लोक 71
 
 
श्लोक  3.26.71 
यथा प्रसुप्तं पुरुषं प्राणेन्द्रियमनोधिय: ।
प्रभवन्ति विना येन नोत्थापयितुमोजसा ॥ ७१ ॥
 
शब्दार्थ
यथा—जिस तरह; प्रसुप्तम्—सोया हुआ; पुरुषम्—मनुष्य; प्राण—प्राणवायु; इन्द्रिय—कर्म तथा ज्ञान की इन्द्रियाँ; मन:—मन; धिय:—बुद्धि; प्रभवन्ति—समर्थ हैं; विना—के बिना; येन—जिसको (परमात्मा); न—नहीं; उत्थापयितुम्—उठाने में; ओजसा—अपनी शक्ति से ।.
 
अनुवाद
 
 जब मनुष्य सोता रहता है, तो उसकी सारी भौतिक सम्पदा—यथा प्राणशक्ति, ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियाँ, मन तथा बुद्धि—उसे उत्प्रेरित नहीं कर सकतीं। वह तभी जागृत हो पाता है जब परमात्मा उसकी सहायता करता है।
 
तात्पर्य
 सांख्य दर्शन की व्याख्या यहाँ पर इस दृष्टिकोण से विस्तार से की गई है कि विराट पुरुष अर्थात् श्रीभगवान् का विश्वरूप ही विभिन्न ज्ञानेन्द्रियों एवं उनके अधिष्ठातृ देवों का उत्पत्ति-केन्द्र है। विराट पुरुष एवं ज्ञानेन्द्रियों के अधिष्ठातृ देवों का अथवा जीवों का सम्बन्ध ऐसा जटिल है कि केवल ज्ञानेन्द्रियों के प्रयोग मात्र से उनके अधिष्ठातृ देवों (भले ही वे परस्पर सम्बद्ध हों) जगाया नहीं जा सकता। विराट पुरुष को जगाना या परमेश्वर को लौकिक कार्यों से सम्बद्ध करना सम्भव नहीं है। केवल भक्तियोग एवं वैराग्य से ही अखिल परमेश्वर से सम्बन्ध जोड़ा जा सकता है।
 
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