श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 26: प्रकृति के मूलभूत सिद्धान्त  »  श्लोक 9
 
 
श्लोक  3.26.9 
देवहूतिरुवाच
प्रकृते: पुरुषस्यापि लक्षणं पुरुषोत्तम ।
ब्रूहि कारणयोरस्य सदसच्च यदात्मकम् ॥ ९ ॥
 
शब्दार्थ
देवहूति: उवाच—देवहूति ने कहा; प्रकृते:—शक्तियों का; पुरुषस्य—परम पुरुष की; अपि—भी; लक्षणम्—लक्षण; पुरुष-उत्तम—हे भगवान्; ब्रूहि—कहें; कारणयो:—कारण; अस्य—इस सृष्टि का; सत्-असत्—प्रकट तथा अप्रकट; च—तथा; यत्-आत्मकम्—जिससे युक्त ।.
 
अनुवाद
 
 देवहूति ने कहा : हे भगवान्, आप परम पुरुष तथा उनकी शक्तियों के लक्षण कहें, क्योंकि ये दोनों इस प्रकट तथा अप्रकट सृष्टि के कारण हैं।
 
तात्पर्य
 प्रकृति का सम्बन्ध परमेश्वर तथा जीवात्मा दोनों से है, ठीक वैसे ही है जैसे कि स्त्री अपने पति से पत्नी के रूप में और बच्चों से माता के रूप में सम्बन्धित होती है। भगवद्गीता में भगवान् का कथन है कि वे माता प्रकृति के गर्भ में जीवात्मा रूप सन्तानों को प्रविष्ट कराते हैं और फिर जीवों की समस्त योनियाँ प्रकट होती हैं। प्रकृति के साथ समस्त जीवों के सम्बन्ध की व्याख्या की जा चुकी है। अब देवहूति प्रकृति तथा परमेश्वर के बीच जो सम्बन्ध पाया जाता है उसके विषय में पूछती हैं। इस सम्बन्ध का परिणाम (फल) प्रकट तथा अप्रकट जगत बताया गया है। अप्रकट जगत सूक्ष्म महत् तत्त्व है और इस महत् तत्त्व से दृश्य जगत प्रकट हुआ।

वैदिक साहित्य में बतलाया गया है कि परमेश्वर की दृष्टि डालने ही सारी भौतिक शक्ति प्रविष्ट हो जाती है और तब प्रकृति से प्रत्येक वस्तु उत्पन्न होती है। भगवद्गीता के नवें अध्याय में भी पुष्टि की गई है कि उन्हीं की दृष्टि के अन्तर्गत-अध्यक्षेण अर्थात् उनके निर्देशन तथा उन्हीं की इच्छा से प्रकृति कार्य करती है। ऐसा नहीं कि प्रकृति मनमाने ढंग से कार्य करती है। प्रकृति के प्रसंग में बद्धजीवों की स्थिति को समझते हुए देवहूति ने जानना चाहा कि प्रकृति कैसे भगवान् के निर्देशन में कार्य करती है और प्रकृति तथा भगवान् के बीच कैसा सम्बन्ध होता है। दूसरे शब्दों में, उन्होंने यह जानना चाहा कि प्रकृति के सन्दर्भ में भगवान् के गुण क्या हैं।

जीवात्मा का पदार्थ से और परमेश्वर का पदार्थ से जो सम्बन्ध है, वह समान स्तर पर नहीं है, भले ही मायावादी ऐसा कहते रहें। जब यह कहा जाता है कि जीवात्माएँ मोहग्रस्त होती हैं, तो मायावादी इस मोह को परमेश्वर पर आरोपित करते हैं। किन्तु ऐसा होता नहीं है। ईश्वर कभी मोहग्रस्त नहीं होते। सगुणवादियों तथा निर्गुणवादियों का यही अन्तर है। देवहूति अज्ञानी नहीं हैं। वे इतना तो समझती ही थीं कि जीवात्माएँ परमेश्वर के समान स्तर पर नहीं हैं। अत्यन्त लघु होने के कारण जीवात्माएँ प्रकृति द्वारा मोहग्रस्त या बद्ध होती रहती हैं, किन्तु इसका अर्थ यह तो नहीं है कि परमेश्वर भी बद्ध या मोहग्रस्त होता है। बद्धजीव तथा भगवान् के बीच का अन्तर यही है कि भगवान् प्रकृति के स्वामी हैं, अत: वे प्रकृति के वश में नहीं होते। वे न तो आध्यात्मिक प्रकृति के वशीभूत हैं, न ही भौतिक प्रकृति के। वे स्वयं परम नियन्ता हैं, उनकी तुलना सामान्य जीवों से नहीं की जा सकती जो प्रकृति के नियमों द्वारा नियन्त्रित होते हैं।

इस श्लोक में सत् तथा असत् इन दो शब्दों का प्रयोग हुआ है। दृश्य जगत असत् है यह विद्यमान नहीं है, किन्तु भगवान् की भौतिक शक्ति सत् अर्थात् चिर विद्यमान है। प्रकृति सूक्ष्म रूप में भगवान् की शक्ति के रूप में विद्यमान रहती है, किन्तु कभी-कभी यह क्षणिक होती है। यहाँ पर माता तथा पिता का दृष्टान्त दिया जा सकता है माता तथा पिता दोनों का अस्तित्व है, किन्तु माता बच्चे उत्पन्न करती है। इसी प्रकार यह दृश्य जगत, जो परमेश्वर की अदृश्य प्रकृति से उत्पन्न है कभी प्रकट होता है और कभी अदृश्य हो जाता है। किन्तु प्रकृति सदैव रही आती है और भगवान् इस जगत के सूक्ष्म तथा स्थूल दोनों ही स्वरूपों के परम कारण हैं।

 
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