श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 27: प्रकृति का ज्ञान  »  श्लोक 1
 
 
श्लोक  3.27.1 
श्रीभगवानुवाच
प्रकृतिस्थोऽपि पुरुषो नाज्यते प्राकृतैर्गुणै: ।
अविकारादकर्तृत्वान्निर्गुणत्वाज्जलार्कवत् ॥ १ ॥
 
शब्दार्थ
श्री-भगवान् उवाच—श्रीभगवान् ने कहा; प्रकृति-स्थ:—भौतिक शरीर में वास करते; अपि—यद्यपि; पुरुष:— जीवात्मा; न—नहीं; अज्यते—प्रभावित होता है; प्राकृतै:—प्रकृति के; गुणै:—गुणों से; अविकारात्—बिना परिवर्तन आये, निर्विकार; अकर्तृत्वात्—कर्तृत्व से स्वतन्त्र; निर्गुणत्वात्—प्रकृति के गुणों से अप्रभावित रहने से; जल—जल पर; अर्कवत्—सूर्य के समान ।.
 
अनुवाद
 
 भगवान् कपिल ने आगे कहा : जिस प्रकार सूर्य जल पर पडऩे वाले प्रतिबिम्ब से भिन्न रहा आता है उसी तरह जीवात्मा शरीर में स्थित होकर भी प्रकृति के गुणों से अप्रभावित रहता है, क्योंकि वह अपरिवर्तित रहता है और किसी प्रकार का इन्द्रियतुष्टि का कर्म नहीं करता।
 
तात्पर्य
 पिछले अध्याय में भगवान् कपिल ने यह निष्कर्ष निकाला कि मात्र भक्ति प्रारम्भ करके मनुष्य विरक्ति प्राप्त कर सकता है तथा आत्मतत्त्व को समझने के लिए दिव्य ज्ञान प्राप्त कर सकता है। यहाँ उसी सिद्धान्त की पुष्टि की गई है। जो मनुष्य प्रकृति के गुणों से विरक्त रहता है, वह जल से प्रतिबिम्बित सूर्य के समान है। जब जल पर सूर्य प्रतिबम्बित होता है, तो जल की गति, या उसकी शीतलता या अस्थिरता का सूर्य पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इसी प्रकार वासुदेवे भगवति भक्तियोग: प्रयोजित: (भागवत १.२.७)—जब मनुष्य भक्ति कार्यों या भक्तियोग में पूरी तरह लग जाता है, तो वह उसी तरह हो जाता है जैसे जल पर प्रतिबिम्बित सूर्य। यद्यपि भक्त भौतिक जगत में रहता प्रतीत होता है, किन्तु वास्तव में वह दिव्य जगत में होता है। जिस प्रकार सूर्य का प्रतिबिम्ब जल पर प्रतीत होता है, किन्तु सूर्य जल से लाखों मील दूरी पर होता है उसी प्रकार भक्तियोग में लगा मनुष्य निर्गुण होता है अर्थात् प्रकृति के गुणों से अप्रभावित रहता है।

अविकार का अर्थ है ‘परिवर्तनरहित’। भगवद्गीता में पुष्टि की गई है कि प्रत्येक जीव परमात्मा का अंश है, अत: उसकी शाश्वत स्थिति यह है कि वह परमेश्वर के संग जुड़े या उनकी शक्ति का दास बने। यही उसकी अपरिवर्तनीय (अविकारी) स्थिति है। ज्योंही वह अपनी शक्ति तथा कार्यों को इन्द्रियतृप्ति में लगाता है कि उसकी स्थिति बदल जाती है और यह बदली हुई स्थिति विकार कहलाती है। इसी प्रकार जब वह गुरु के निर्देशन में भक्ति करता है, तो उसकी स्थिति बदलती नहीं, क्योंकि यह तो उसका प्राकृतिक कर्तव्य है। जैसाकि श्रीमद्भागवत में उल्लेख है, मुक्ति का अर्थ है मूल स्थिति में पुन:स्थापना। मूल स्थिति तो भगवान् की भक्ति करना (भक्तियोगेन, भक्त्या) है। जब मनुष्य भौतिक आकर्षण से विरक्त हो जाता है और भक्ति में पूरी तरह लग जाता है, तो यह अपरिवर्तनशीलता है। अकर्तृत्वात् का अर्थ है इन्द्रियतृप्ति के लिए कुछ भी न करना। जब मनुष्य अपने बूते पर कोई काम करता है, तो उसमें स्वामित्व की भावना रहती है और इसीलिए प्रतिक्रिया होती है, किन्तु जब वह कृष्ण के लिए सब कुछ करता है, तो कर्मों के ऊपर उसका कोई कर्तृत्व नहीं रहता। अपरिवर्तनशील तथा कर्म के कर्तृत्व का अधिकार न माँगने से वह तुरन्त दिव्य स्थिति को प्राप्त होता है जहाँ उसे प्रकृति के गुण छू तक नहीं पाते, ठीक उसी प्रकार जिस तरह सूर्य का प्रतिबिम्ब जल द्वारा अप्रभावित रहता है।

 
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