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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 27: प्रकृति का ज्ञान  »  श्लोक 10
 
 
श्लोक  3.27.10 
निवृत्तबुद्ध्यवस्थानो दूरीभूतान्यदर्शन: ।
उपलभ्यात्मनात्मानं चक्षुषेवार्कमात्मद‍ृक् ॥ १० ॥
 
शब्दार्थ
निवृत्त—अलग; बुद्धि-अवस्थान:—भौतिक चेतना की अवस्थाएँ; दूरी-भूत—सुदूर; अन्य—दूसरा; दर्शन:—जीवन बोध; उपलभ्य—प्राप्त करके; आत्मना—अपने विशुद्ध विवेक से; आत्मानम्—अपने आपको; चक्षुषा—अपनी आँखों से; इव—सदृश; अर्कम्—सूर्य; आत्म-दृक्—स्वरूपसिद्ध ।.
 
अनुवाद
 
 मनुष्य को भौतिक चेतना की अवस्थाओं से परे दिव्य स्थिति में रहना चाहिए और अन्य समस्त जीवन-बोधों से विलग रहना चाहिए। इस प्रकार अहंकार से मुक्त होकर उसे अपने आपको उसी तरह देखना चाहिए जिस प्रकार वह आकाश में सूर्य को देखता है।
 
तात्पर्य
 भौतिक जीवन-बोध के अधीन चेतना तीन अवस्थाओं में कार्य करती है। जब हम जाग्रत रहते हैं, तो चेतना एक विशिष्ट प्रकार से कार्य करती है, जब सुप्त रहते हैं, तो दूसरे प्रकार से कार्य करती है और जब प्रगाढ़ निद्रा में होते हैं, तो चेतना एक अन्य ढंग से कार्य करती है। कृष्णभावनाभावित होने के लिए मनुष्य को चेतना की इन अवस्थाओं से पार चले जाना होता है। हमारी वर्तमान चेतना को पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण की चेतना (भक्ति) के अतिरिक्त अन्य समस्त जीवन-बोधों से मुक्त होना चाहिए। यह दूरी-भूतान्य-दर्शन: कहलाता है, जिसका भाव यह है कि जब उसे पूर्ण कृष्णचेतना (भक्ति) प्राप्त हो जाती है, तो उसे कृष्ण के अतिरिक्त कुछ भी नहीं दिखता। चैतन्य-चरितामृत में कहा गया है कि पूर्ण भक्त अनेक चर तथा अचर पदार्थ देखता है, किन्तु उन सबों में वह कृष्ण की शक्ति को कार्यशील पाता है। ज्योंही वह कृष्ण की शक्ति का स्मरण करता है त्योंही उसे कृष्ण का साकार रूप याद हो आता है। अत: वह सारे अवलोकनों में कृष्ण को ही देखता है। ब्रह्म-संहिता (५.३८) में कहा गया है कि जब मनुष्य की आँखों में कृष्णप्रेम का अञ्जन लगा रहता है (प्रेमाञ्जनच्छुरित), तो उसे सदा भीतर-बाहर श्रीकृष्ण के दर्शन होते हैं। यहाँ पर इसकी पुष्टि होती है। मनुष्य को अन्य सभी भावों से मुक्त रहना चाहिए। तभी वह झूठे अहंकार से मुक्त होकर अपने को भगवान् के शाश्वत दास के रूप में देखता है। चक्षुषेवार्कम्—जिस प्रकार हम सूर्य को बिना सन्देह के देख सकते हैं उसी तरह जो कृष्णभक्ति में सिद्धहस्त हो चुका है, वह कृष्ण तथा उनकी शक्ति का दर्शन करता है। इस भावभूमि में वह आत्मदृक् अर्थात् स्वरूपसिद्ध हो जाता है। जब आत्मा के साथ शरीर की पहचान का अहंकार दूर हो जाता है, तो वास्तविक जीवन-दृष्टि दिखलाई पड़ती है। अत: इन्द्रियाँ भी शुद्ध हो जाती हैं। इन्द्रियों के शुद्ध होने पर ही भगवान् की असली सेवा प्रारम्भ होती है। मनुष्य को चाहिए कि इन्द्रियों के कार्यों को बन्द न करे, अपितु शरीर के अहंकार को दूर करे। तब इन्द्रियाँ स्वत: शुद्ध हो जाती हैं और शुद्ध इन्द्रियों से ही असली भक्ति की जा सकती है।
 
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