मुक्तलिङ्गं सदाभासमसति प्रतिपद्यते ।
सतो बन्धुमसच्चक्षु: सर्वानुस्यूतमद्वयम् ॥ ११ ॥
शब्दार्थ
मुक्त-लिङ्गम्—दिव्य; सत्-आभासम्—प्रतिबिम्ब रूप में प्रकट; असति—अहंकार में; प्रतिपद्यते—उसे बोध होता है; सत: बन्धुम्—भौतिक कारण का आधार; असत्-चक्षु:—माया के नेत्र; सर्व-अनुस्यूतम्—हर वस्तु में प्रविष्ट; अद्वयम्—अद्वितीय ।.
अनुवाद
मुक्त जीव को उस परमेश्वर का साक्षात्कार होता है, जो दिव्य है और अहंकार में भी प्रतिबिम्बि के रूप में प्रकट होता है। वे भौतिक कारण के आधार हैं तथा प्रत्येक वस्तु में प्रवेश करने वाले हैं। वे अद्वितीय हैं और माया के नेत्र हैं।
तात्पर्य
शुद्ध भक्त को प्रत्येक भौतिक वस्तु में भगवान् की उपस्थिति दिख सकती है। वे इनमें मात्र प्रतिबिम्ब रूप में विद्यमान रहते हैं, किन्तु शुद्ध भक्त अनुभव करता है कि मोह के अंधकार में ईश्वर ही एकमात्र आधारस्वरूप प्रकाश होता है। भगवद्गीता में पुष्टि की गई है भौतिक जगत की पृष्ठभूमि श्रीकृष्ण हैं और ब्रह्म-संहिता में भी इसी की पुष्टि है कि कृष्ण ही समस्त कारणों के कारण हैं। ब्रह्म-संहिता में कहा गया है कि परमेश्वर अपने अंश या पूर्ण विस्तार से न केवल इस ब्रह्माण्ड में और प्रत्येक ब्रह्माण्ड में, अपितु हर परमाणु में उपस्थित हैं, यद्यपि वे अद्वितीय हैं। इस श्लोक में प्रयुक्त अद्वयम् शब्द बताता है कि यद्यपि भगवान् का प्रतिनिधित्व परमाणु सहित प्रत्येक वस्तु में है, किन्तु वे अविभाज्य हैं। प्रत्येक वस्तु में उनकी उपस्थिति का वर्णन अगले श्लोक में हुआ है।
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