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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 27: प्रकृति का ज्ञान  »  श्लोक 12
 
 
श्लोक  3.27.12 
यथा जलस्थ आभास: स्थलस्थेनावद‍ृश्यते ।
स्वाभासेन तथा सूर्यो जलस्थेन दिवि स्थित: ॥ १२ ॥
 
शब्दार्थ
यथा—जिस तरह; जल-स्थ:—जल में स्थित; आभास:—प्रतिबिम्ब; स्थल-स्थेन—दीवाल में स्थित; अवदृश्यते— देखा जाता है; स्व-आभासेन—अपने प्रतिबिम्ब से; तथा—उसी तरह; सूर्य:—सूर्य; जल-स्थेन—जल में स्थित; दिवि—आकाश में; स्थित:—स्थित ।.
 
अनुवाद
 
 जिस प्रकार आकाश में स्थित सूर्य को सर्वप्रथम जल में पड़े प्रतिबिम्ब से और फिर कमरे की दीवाल पर पड़े दूसरे प्रतिबिम्ब से देखा जाता है, उसी तरह परमेश्वर की उपस्थिति महसूस की जाती है।
 
तात्पर्य
 यहाँ पर दिया गया उदाहरण सटीक है। सूर्य पृथ्वी की सतह से अत्यन्त दूरी पर आकाश में स्थित है, किन्तु उसका प्रतिबिम्ब कमरे के एक कोने में जल के पात्र में भी देखा जा सकता है। कमरा अँधेरा है और सूर्य सुदूर आकाश में स्थित है, किन्तु जल में पड़े सूर्य के प्रतिबिम्ब से अंधियारा कमरा प्रकाशित हो उठता है। शुद्ध भक्त भगवान् को उनकी शक्ति के प्रतिबिम्ब के द्वारा हर वस्तु में देख सकता है। विष्णु पुराण में कहा गया है कि जिस तरह अग्नि की उपस्थिति उष्मा तथा प्रकाश से जानी जाती है उसी तरह पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्, अद्वितीय होने पर भी अपनी विभिन्न शक्तियों के विसरण से सर्वत्र देखे जाते हैं। ईशोपनिषद में पुष्टि की गई है कि मुक्त जीव को सर्वत्र भगवान् वैसे ही दिखते हैं जिस तरह पृथ्वी की सतह से सुदूर स्थित रहकर भी सूर्य के प्रकाश तथा प्रतिबिम्ब को देखा जा सकता है।
 
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