एवं त्रिवृदहङ्कारो भूतेन्द्रियमनोमयै: ।
स्वाभासैर्लक्षितोऽनेन सदाभासेन सत्यदृक् ॥ १३ ॥
शब्दार्थ
एवम्—इस तरह; त्रि-वृत्—त्रिविध, तीन प्रकार का; अहङ्कार:—अहंकार; भूत-इन्द्रिय-मन:-मयै:—शरीर, इन्द्रियाँ तथा मन से युक्त; स्व-आभासै:—अपने ही प्रतिबिम्बों से; लक्षित:—देखा जाता है; अनेन—इसके द्वारा; सत्- आभासेन—ब्रह्म के प्रतिबिम्ब से; सत्य-दृक्—आत्मवान्, स्वरूपसिद्ध आत्मा ।.
अनुवाद
इस प्रकार स्वरूपसिद्ध आत्मा सर्वप्रथम त्रिविध अहंकार में और तब शरीर, इन्द्रियों एवं मन में प्रतिबिम्बित होता है।
तात्पर्य
बद्धजीव सोचता है कि, “मैं यह शरीर हूँ,” किन्तु मुक्त जीव सोचता है “मैं यह शरीर नहीं हूँ, मैं आत्मा हूँ।” यह “मैं हूँ” अहं (गर्व) कहलाता है। “मैं यह शरीर हूँ” अथवा “इस शरीर से सम्बन्धित प्रत्येक वस्तु मेरी है” यह अहंकार कहलाता है, किन्तु जब कोई स्वरूपसिद्ध हो जाता है और सोचता है कि वह परमेश्वर का चिर दास है, तो यह पहचान वास्तविक अहं है। इनमें से प्रकृति के तीन गुणों—सतो, रजो तथा तमो—में से एक विचार है तमो अर्थात् अन्धकार का और दूसरा है सतोगुण की शुद्ध अवस्था में जिसे शुद्ध सत्त्व या वासुदेव कहते हैं। जब हम कहते हैं कि हम अपना गर्व (अहं) त्यागते हैं, तो इसका अर्थ है कि हम मिथ्या अहम् त्यागते हैं, किन्तु असली अहम् तो सदैव विद्यमान रहता है। जब मनुष्य शरीर तथा मन के भौतिक कल्मष के द्वारी झूठी पहचान में प्रतिबिम्बित होता है, तो वह बद्ध अवस्था में रहता है और जब शुद्ध अवस्था में प्रतिबिम्बित होता है, तो वह मुक्त कहलाता है। बद्ध अवस्था में अपनी भौतिक सम्पत्ति के साथ पहचान को शुद्ध करना चाहिए और उसे अपने आपकी पहचान परमेश्वर के साथ करनी चाहिए। बद्ध अवस्था में मनुष्य हर वस्तु को इन्द्रियतृप्ति की वस्तु मान लेता है, जबकि मुक्त अवस्था में वह हर वस्तु को परमेश्वर की सेवा के लिए ग्रहण करता है। जीव की असली मुक्त अवस्था कृष्णचेतना अर्थात् भक्तिमय सेवा है। अन्यथा शुद्ध आत्मा के लिए भौतिक स्तर पर या शून्य में स्वीकारोक्ति तथा अस्वीकारोक्ति या निर्विशेषवाद अपूर्ण अवस्थाएँ हैं।
विशुद्ध आत्मा को, जिसे सत्यदृक् कहा गया है, जान लेने से मनुष्य हर वस्तु को परमेश्वर के प्रतिबिम्ब रूप में देखता है। इस सम्बन्ध में एक ठोस उदाहरण दिया जा सकता है।
बद्धजीव एक अत्यन्त सुन्दर गुलाब देखता है और सोचता है कि इस सुगन्धित पुष्प का उपयोग अपनी इन्द्रियतृप्ति के लिए क्यों न करूँ। यह एक प्रकार की दृष्टि है। किन्तु एक मुक्त आत्मा इसी फूल को परमेश्वर के प्रतिबिम्ब के रूप में देखता है और सोचता है, “यह फूल परमेश्वर की श्रेष्ठ शक्ति से सम्भव हो सका, अत: यह उनका है और इसका उपयोग उनकी सेवा में होना चाहिए।” ये दो प्रकार की दृष्टियाँ हैं। बद्धजीव इस फूल को अपने भोग की वस्तु के रूप में और भक्त इस फूल को भगवान् की सेवा में प्रयुक्त होने वाली वस्तु के रूप में देखता है। इसी प्रकार मनुष्य परमेश्वर के प्रतिबिम्ब को अपनी इन्द्रियों, मन तथा शरीर—यहाँ तक कि सारी वस्तुओं में देख सकता है। इस सही दृष्टि से वह प्रत्येक वस्तु को भगवान् की सेवा में लगाता है। भक्ति-रसामृत-सिंधु में कहा गया है कि जिसने अपना सब कुछ—अपनी प्राणशक्ति, सम्पत्ति, बुद्धि तथा वाणी—भगवान् की सेवा में लगा दिया है या जो इन्हें उनकी सेवा में लगाना चाहता है उसे मुक्त आत्मा या सत्यदृक् मानना चाहिए भले ही वह कैसी ही स्थिति क्यों न हो। ऐसा व्यक्ति वस्तुओं को उसी रूप में जाने रहता है।
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