मन्यमानस्तदात्मानमनष्टो नष्टवन्मृषा ।
नष्टेऽहङ्करणे द्रष्टा नष्टवित्त इवातुर: ॥ १५ ॥
शब्दार्थ
मन्यमान:—सोचते हुए; तदा—तब; आत्मानम्—स्वयं; अनष्ट:—यद्यपि नष्ट नहीं; नष्ट-वत्—नष्ट के समान; मृषा— झूठे ही; नष्टे अहङ्करणे—अहंकार के नष्ट होने से; द्रष्टा—देखने वाला; नष्ट-वित्त:—जिसकी सम्पत्ति नष्ट हो गई है; इव—सदृश; आतुर:—दुखी ।.
अनुवाद
जीवात्मा स्पष्ट रूप से द्रष्टा के रूप में अपने अस्तित्व का अनुभव कर सकता है, किन्तु प्रगाढ़ निद्रा के समय अहंकार के दूर हो जाने के कारण वह अपने को उस तरह विनष्ट हुआ मान लेता है, जिस प्रकार सम्पत्ति के नष्ट होने पर मनुष्य अपने को विनष्ट हुआ समझता है।
तात्पर्य
केवल अज्ञानवश ही जीवात्मा सोचता है कि वह विनष्ट हो गया। यदि वह ज्ञान प्राप्त करके अपने शाश्वत अस्तित्व की वास्तविक दशा से अवगत हो लेता है, तो वह जानता है कि वह विनष्ट नहीं हुआ। यहाँ पर उपयुक्त उदाहरण दिया गया है—नष्ट-वित्त इवातुर:। वह मनुष्य जिसका विपुल धन नष्ट हो जाता है अपने आपको विनष्ट समझता है, किन्तु वास्तव में वह विनष्ट हुआ नहीं होता—केवल उसका धन विनष्ट होता है। किन्तु धन के विषय में तल्लीनता अथवा धन को ही आत्म मानने से वह अपने को विनष्ट समझता है। इसी प्रकार जब हम पदार्थ को अपना कार्यक्षेत्र मान लेते हैं, तो सोचते हैं कि हम विनष्ट हो गये यद्यपि वास्तव में ऐसा होता नहीं। ज्योंही मनुष्य में इस शुद्ध ज्ञान का उदय होता है कि वह भगवान् का नित्य दास है, तो उसकी अपनी वास्तविक स्थिति पुन: प्राप्त हो जाती है। जीवात्मा कभी विनष्ट नहीं हो सकता। प्रगाढ़ निद्रा में मनुष्य अपनी पहचान भूल जाता है, वह सपनों में खो जाता है और तब वह अपने को एक भिन्न व्यक्ति या कि अपने आपको विनष्ट सोच सकता है। किन्तु वास्तव में उसकी पहचान (सत्ता) ज्यों की त्यों बनी रहती है। विनष्ट होने का यह भाव अहंकार के कारण है और यह तब तक बना रहता है जब तक मनुष्य में यह ज्ञान नहीं जगता कि वह भगवान् का नित्य दास है। अहंकार से विनष्ट होने का दूसरा लक्षण है मायावादी चिन्तकों की परमेश्वर से तादात्म्य की विचारधारा। मनुष्य झूठे ही दावा कर सकता है कि मैं परमेश्वर हूँ, किन्तु वास्तव में वह वैसा होता नहीं। जीवात्मा पर माया के प्रभाव का यह अन्तिम पाश होता है। अपने आपको परमेश्वर के तुल्य मानना या कि स्वयं को परमेश्वर समझ लेना अहंकार के ही कारण होता है।
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