एवं प्रत्यवमृश्यासावात्मानं प्रतिपद्यते ।
साहङ्कारस्य द्रव्यस्य योऽवस्थानमनुग्रह: ॥ १६ ॥
शब्दार्थ
एवम्—इस प्रकार; प्रत्यवमृश्य—विचार करके; असौ—वह व्यक्ति; आत्मानम्—अपने आपको; प्रतिपद्यते—अनुभव करता है; स-अहङ्कारस्य—अहंकार के वश में माना हुआ; द्रव्यस्य—स्थिति का; य:—जो; अवस्थानम्—आश्रय, अधिष्ठान; अनुग्रह:—प्रकाशक ।.
अनुवाद
जब मनुष्य परिपक्व ज्ञान के द्वारा अपने व्यक्तित्व का अनुभव करता है, तो अहंकारवश वह जिस स्थिति को स्वीकार करता है, वह उसे प्रकट हो जाती है।
तात्पर्य
मायावादी चिन्तक की स्थिति यह है कि अन्तत: व्यक्ति (वैशिष्ट्य) विनष्ट हो जाता है, सारी वस्तुएँ एक हो जाती हैं और ज्ञाता, ज्ञेय तथा ज्ञान में अन्तर नहीं रह जाता। किन्तु सूक्ष्म विश्लेषण से पता चलता है कि यह सही नहीं है। व्यक्तित्व (व्यष्टित्व) कभी विनष्ट नहीं होता, यहाँ तक कि तब भी जब मनुष्य यह सोचता होता है कि तीन भिन्न तत्त्व अर्थात् ज्ञाता, ज्ञेय तथा ज्ञान एकाकार हो गये हैं। यह विचारधारा कि तीनों एक में लीन हो जाते हैं ज्ञान का दूसरा रूप है और चूँकि ज्ञान रूपी द्रव्य अब भी विद्यमान रहता है, अत: यह कहा जा सकता है कि ज्ञाता, ज्ञेय तथा ज्ञान एक हो गये हैं। इस ज्ञान को देखने वाला व्यष्टि जीव अब भी एक व्यक्ति बना रहता है। भौतिक जगत तथा आध्यात्मिक जगत दोनों ही में सत्ता बनी रहती है, अन्तर है, तो केवल पहचान की गुणता में। भौतिक पहचान में अहंकार कार्य करता है और गलत पहचान के कारण मनुष्य वस्तुओं को उनके वास्तविक रूप से भिन्न करके ग्रहण करता है। बद्ध जीवन का मूल सिद्धान्त यही है। इसी प्रकार जब अहंकार शुद्ध हो जाता है, तो मनुष्य हर वस्तु को सही रूप में ग्रहण करता है। यह मुक्ति की अवस्था है। ईशोपनिषद् में कहा गया है कि प्रत्येक वस्तु भगवान् की है। ईशावास्यमिदं सर्वम्। प्रत्येक वस्तु परमेश्वर की शक्ति पर स्थित है। भगवद्गीता में भी इसकी पुष्टि हुई है। चूँकि प्रत्येक वस्तु उन्हीं की शक्ति से उत्पन्न है और उनकी शक्ति पर स्थित है, अत: यह शक्ति उनसे भिन्न नहीं है, तो भी भगवान् कहते हैं, “मैं वहाँ नहीं हूँ”। जब मनुष्य अपनी स्वाभाविक स्थिति को समझ लेता है, तो सब कुछ प्रकट हो जाता है। वस्तुओं की अहंकारजन्य स्वीकृति से मनुष्य बद्ध होता है, किन्तु उनकी सही-सही स्वीकृति से वह मुक्त बनता है। पिछले श्लोक का उदाहरण यहाँ लागू होता है—अपने धन में अपनी पहचान करने से, जब मनुष्य का धन नष्ट हो जाता है, तो वह सोचता है कि वह भी नष्ट हो गया। किन्तु वास्तव में वह धन से एकरूप नहीं है और न यह धन उसका है। जब वास्तविक स्थिति प्रकट हो जाती है, तो हम समझ पाते हैं कि धन किसी एक व्यक्ति या जीवात्मा का नहीं है, न ही वह मनुष्य द्वारा उत्पन्न है। अन्तत: यह धन परमेश्वर की सम्पत्ति है, अत: उसके विनष्ट होने का प्रश्न नहीं उठता। किन्तु जब तक मनुष्य झूठे ही सोचता है कि, “मैं भोक्ता हूँ” या “मैं ही भगवान् हूँ” तब तक जीवन की यह विचारधारा चलती रहती है और मनुष्य बद्ध रहता है। ज्योंही यह अहंकार दूर हो जाता है, तो वह मुक्त हो जाता है। जैसाकि भगवद्गीता में पुष्टि की गई है मनुष्य की स्वाभाविक स्थिति ही मुक्ति की स्थिति है।
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