देवहूति: उवाच—देवहूति ने कहा; पुरुषम्—आत्मा; प्रकृति:—प्रकृति; ब्रह्मन्—हे ब्राह्मण; न—नहीं; विमुञ्चति— छोड़ती है; कर्हिचित्—किसी भी समय, कभी; अन्योन्य—परस्पर; अपाश्रयत्वात्—आकर्षण से; च—तथा; नित्यत्वात्—नित्यता से; अनयो:—उन दोनों का; प्रभो—हे भगवान् ।.
अनुवाद
श्री देवहूति ने पूछा : हे ब्राह्मण, क्या कभी प्रकृति आत्मा का परित्याग करती है? चूँकि इनमें से कोई एक दूसरे के प्रति शाश्वत रूप से आकर्षित रहता है, तो उनका पृथकत्व (वियोग) कैसे सम्भव है?
तात्पर्य
कपिल की माता देवहूति यहाँ पर पहला प्रश्न पूछती हैं। यद्यपि मनुष्य जानता है कि आत्मा तथा पदार्थ भिन्न हैं, किन्तु न तो दार्शनिक चिन्तन से और न उपयुक्त ज्ञान से उनको विलग किया जाता है। आत्मा परमेश्वर की तटस्था शक्ति है और पदार्थ बहिरंगा शक्ति है। ये दोनों नित्य शक्तियाँ न जाने किस तरह मिल गई हैं कि अब इनको एक दूसरे से विलग करना कठिन है, तो फिर यह कैसे सम्भव है कि प्रत्येक जीव मुक्त हो सके? व्यावहारिक अनुभव द्वारा यह देखा जा सकता है कि जब आत्मा को शरीर से विलग कर दिया जाता है, तो शरीर का कोई अस्तित्व नहीं रहता और जब शरीर को आत्मा से विलग लिया जाता है, तो आत्मा का अस्तित्व नहीं दिखता। जब तक आत्मा तथा शरीर मिले रहते हैं हम समझते हैं कि जीवन है, किन्तु उनके विलग होते ही शरीर या आत्मा का अस्तित्व नहीं दिखता। देवहूति द्वारा कपिल से पूछा गया यह प्रश्न शून्यवाद दर्शन से थोड़ा-बहुत प्रेरित है। शून्यवादी कहते हैं कि चेतना पदार्थ के संयोग से उत्पन्न है और ज्योंही चेतना चली जाती है, भौतिक संयोग विलीन हो जाता है, अत: अन्त में शून्य के अतिरिक्त और कुछ नहीं रहता। मायावाद दर्शन में चेतना की इस अनुपस्थिति को निर्वाण कहते हैं।
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