जब आत्मा प्रकृति के जादू तथा अहंकार के वशीभूत होता है और शरीर को स्व (आत्मा) मान लेता है, तो वह भौतिक कार्यकलापों में लीन रहने लगता है और अहंकारवश सोचता है कि मैं ही प्रत्येक वस्तु का कर्ता हूँ।
तात्पर्य
वास्तविकता तो यह है कि बद्धजीव को प्रकृति के गुणों के वशीभूत होकर कार्य करना पड़ता है। जीवात्मा को तनिक भी स्वाधीनता नहीं है। जब वह भगवान् के निर्देशन में रहता है, तो वह मुक्त होता है, किन्तु जब वह इस भाव से कि वह इन्द्रियों की तुष्टि कर रहा है, अपने आपको इन्द्रियतुष्टि के कार्यों में लगा देता है, तो वास्तव में वह प्रकृति के जादू में बँध जाता है। भगवद्गीता में कहा गया है प्रकृति: क्रियमाणानि—मनुष्य प्रकृति के उन गुणों के अनुसार कार्य करता है, जो उसने अर्जित किए हैं। गुण से प्रकृति के गुण सूचित होते हैं। वह प्रकृति के गुणों के अधीन रहता है, किन्तु भ्रमवश अपने को कर्ता समझता है। यह कर्तृत्व की भ्रान्त धारणा भगवान् या उनके प्रामाणिक प्रतिनिधि के निर्देशानुसार भक्ति में लगने से ही दूर हो पाती है। भगवद्गीता में अर्जुन युद्ध में अपने पितामह तथा गुरु के मरने का उत्तरदायित्व अपने ऊपर ले रहा था, किन्तु जब उसने कृष्ण के निर्देशानुसार कार्य किया, तो वह कार्य के कर्तृत्व से मुक्त हो गया। वह लड़ा, किन्तु लडऩे के फल से मुक्त कर दिया गया, यद्यपि प्रारम्भ में जब वह अहिसंक था, लडऩे को तैयार न था, तो सारा दायित्व उसी पर था। यही मुक्ति तथा बद्धता के बीच अन्तर है। बद्धजीव भले ही उत्तम और सतोगुणी हो, किन्तु तो भी वह प्रकृति के सम्मोह के वशीभूत रहता है। फिर भी भक्त परमेश्वर के निर्देशन में कार्य करता है। इस तरह उसके कार्य सामान्य व्यक्ति को भले ही अति उच्च कोटि के न प्रतीत हों, किन्तु भक्त पर कोई उत्तरदायित्व नहीं रहता।
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