अपने आपको पदार्थ के अधीन करने से भवबन्धन उत्पन्न होता है, क्योंकि अहंकार प्रकृति पर अधिकार जताना चाहता है। भगवद्गीता (७.२७) का कथन है— इच्छाद्वेषसमुत्थेन। जीवात्मा में दो प्रकार की रुचियों का उदय होता है। एक है इच्छा जिसका अर्थ है प्रकृति पर अधिकार जताना अथवा परमेश्वर के समान महान् बनना। प्रत्येक व्यक्ति इस संसार में महानतम व्यक्ति बनना चाहता है। दूसरी है द्वेष अर्थात् ईर्ष्या। जब मनुष्य कृष्ण अथवा पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् से द्वेष करता है, तो वह सोचता है कि, “कृष्ण ही सर्वेसर्वा क्यों हैं? मैं भी कृष्ण जैसा हूँ।” ये दो बातें—भगवान् बनने की इच्छा और भगवान् से ईर्ष्या— भवबन्धन के प्रारम्भिक कारण हैं। जब तक चिन्तक, मुक्ति का इच्छुक या शून्यवादी महान् बनने, सब कुछ होने या ईश्वर के अस्तित्व को नकारने की कोई न कोई इच्छा रखता है तब तक उसकी मुक्ति का प्रश्न ही नहीं उठता।
देवहूति अत्यन्त बुद्धिमत्तापूर्वक कहती है, “कोई भले ही सिद्धान्तत: विश्लेषण करते हुए यह कहे कि ज्ञान के द्वारा वह मुक्त हो गया है, किन्तु वास्तव में जब तक कारण विद्यमान है तब तक वह मुक्त नहीं है।” भगवद्गीता पुष्टि करती है कि अनेक जन्मों तक ऐसे चिन्तन के बाद जब मनुष्य अपनी वास्तविक चेतना को प्राप्त होता है और भगवान् श्रीकृष्ण की शरण में जाता है तभी उसकी ज्ञान की खोज पूरी होती है। भवबन्धन से सैद्धान्तिक मुक्ति तथा वास्तविक मुक्ति के बीच पर्याप्त अन्तर है। भागवत (१०.१४.४) का कथन है कि यदि कोई भक्ति के शुभ पथ को छोडक़र केवल चिन्तन द्वारा वस्तुओं को जानना चाहता है, तो वह वृथा ही अपना समय गँवाता है (क्लिश्यन्ति ये केवलबोध लब्धये)। इस प्रकार का श्रम केवल श्रम होता है, कोई अन्य परिणाम नहीं निकलता। चिन्तन का श्रम रिक्तता में समाप्त होता है। यहाँ यह उदाहरण दिया जा सकता है कि धान की भूसी को कूटने से क्या लाभ! उसका चावल तो पहले से ही निकला रहता है। इसी प्रकार मात्र चिन्तन से मनुष्य भवबन्धन से मुक्त नहीं हो सकता, क्योंकि कारण तब भी विद्यमान रहता है। पहले कारण का निषेध करना होता है तब कर्म (प्रभाव) निरस्त होता है। अगले श्लोकों में भगवान् इसकी व्याख्या करते हैं।