इस प्रसंग में श्रीधर स्वामी की टीका है कि केवल प्रकृति के साहचर्य से ही कोई बद्ध नहीं हो जाता। बद्ध जीवन तो प्रकृति के गुणों से दूषित होने के बाद ही प्रारम्भ होता है। यदि कोई पुलिस विभाग के संसर्ग में रहता है, तो इसका अर्थ यह नहीं होता कि वह अपराधी है। जब तक कोई अपराध नहीं करता तब तक पुलिस विभाग के होते हुए भी उसे दण्डित नहीं किया जाता। इसी प्रकार मुक्त जीव भौतिक प्रकृति में रहते हुए भी उससे प्रभावित नहीं होता। यहाँ तक कि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् भी, जब वे अवतरित होते हैं, तो प्रकृति के साहचर्य में रहते हैं, किन्तु वे उससे प्रभावित नहीं होते। मनुष्य को इस तरह कर्म करना होता है कि इस भौतिक प्रकृति में रहते हुए भी वह कल्मष से प्रभावित न हो। यद्यपि कमल के फूल का साहचर्य जल के साथ होता है, किन्तु जल उससे छू नहीं जाता। यही वह विधि है, जिस तरह मनुष्य को रहना है, जैसाकि भगवान् कपिलदेव ने यहाँ पर वर्णन किया है (अनिमित्तनिमित्तेन स्वधर्मेणामलात्मना)। यदि मनुष्य गभ्भीरतापूर्वक भक्ति में लगा रहे तो वह समस्त प्रतिकूल परिस्थितियों से मुक्त हो सकता है। जिस तरह यह भक्ति विकसित होकर परिपक्व बनती है उसकी यहाँ व्याख्या की गई है। प्रारम्भ में मनुष्य को शुद्ध मन से नियत कर्तव्य करने होते हैं। शुद्ध चेतना का अर्थ है कृष्णचेतना। मनुष्य को कृष्णचेतना में नियत कर्तव्य करने होते हैं। उसे अपने नियत कर्तव्यों को बदलने की कोई आवश्यकता नहीं रहती, उसे केवल कृष्णचेतना में कर्म करना होता है। कृष्णभावनाभावित कर्तव्य करते हुए उसे यह तय करना चाहिए कि उसके वृत्तिपरक कर्तव्यों से श्रीभगवान् कृष्ण सन्तुष्ट होते हैं। भागवत में एक अन्य स्थान में कहा गया है—स्वनुष्ठितस्य धर्मस्य संसिद्धिर्हरितोषणम्—हर व्यक्ति को कुछ न कुछ कर्तव्य करने होते हैं, किन्तु ऐसे कर्तव्यों की पूर्णता तभी होगी जब भगवान् श्रीहरि ऐसे कर्मों से तुष्ट हों। उदाहरणार्थ, अर्जुन का नियत कर्तव्य युद्ध करना था और उसके युद्ध की पूर्णता श्रीकृष्ण की तुष्टि से आँकी जानी थी। कृष्ण की इच्छा थी कि वह युद्ध करे और जब उसने भगवान् की तुष्टि के लिए युद्ध किया, तो यह उसके भक्तिमय कर्तव्य की पूर्णता थी। दूसरी ओर, जब भगवान् की इच्छा के विरुद्ध वह युद्ध करना नहीं चाह रहा था, तो वह अपूर्ण था।
यदि कोई अपने जीवन को पूर्ण बनाना चाहता है, तो उसे कृष्ण की तुष्टि के लिए अपने नियत कर्तव्य सम्पन्न करने चाहिए। उसे कृष्णचेतना में कार्य करना चाहिए, क्योंकि ऐसे कर्म से कोई फल नहीं उत्पन्न होता (अनिमित्त-निमित्तेन) इसकी पुष्टि भगवद्गीता में हुई है—यज्ञार्थात् कर्मणोऽन्यत्र—यज्ञ अथवा विष्णु की तुष्टि के लिए ही सारे कार्य सम्पन्न किये जाने चाहिए। अन्य कोई भी कार्य या यज्ञ जो विष्णु की तुष्टि के बिना सम्पन्न किया जाता है बन्धन उत्पन्न करता है, अत: यहाँ पर कपिल मुनि द्वारा इसकी भी संस्तुति की गई है कि कृष्णचेतना में कार्य करके अर्थात् भक्ति में गभ्भीरतापूर्वक लग करके भवबन्धन को छिन्न किया जा सकता है। ऐसी भक्ति दीर्घकाल तक श्रवण करने से विकसित होती है। कीर्तन तथा श्रवण तो भक्तियोग का शुभारम्भ है। मनुष्य को चाहिए कि भक्तों की संगति करे और उनसे भगवान् के दिव्य प्राकट्य, कार्यकलापों, उनके अन्तर्धान, आदेश आदि के विषय में सुने।
श्रुति अथवा शास्य दो तरह के होते हैं। एक जो भगवान् द्वारा कहे गये हैं और दूसरे जो भगवान् तथा उनके भक्तों के विषय में कहे गये हैं। भगवद्गीता पहले प्रकार की है और श्रीमद्भागवत दूसरे प्रकार की। मनुष्य को चाहिए कि गम्भीर भक्ति-सेवा में स्थिर होने के लिए ऐसी श्रुतियों का बारम्बार श्रवण विश्वसनीय स्रोतों से करे। ऐसी भक्ति में लगने से वह माया के कल्मष से मुक्त हो जाता है। श्रीमद्भागवत में कहा गया है कि श्रीभगवान् के विषय में श्रवण करने से हृदय प्रकृति के तीनों गुणों के प्रभाव से उत्पन्न समस्त कल्मष से स्वच्छ हो जाता है। निरन्तर तथा नियमित श्रवण करने से काम तथा लोभ या प्रकृति पर अधिकार जताने के कल्मष के प्रभाव कम हो जाते हैं और जब लोभ तथा काम घट जाते हैं, तो मनुष्य सतोगुण पद को प्राप्त होता है। यह ब्रह्म-साक्षात्कार या आत्म-साक्षात्कार की अवस्था है। इस प्रकार मनुष्य दिव्य पद पर स्थिर हो जाता है। दिव्य पद पर स्थिर बने रहना ही भवबन्धन से मुक्ति है।