श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 27: प्रकृति का ज्ञान  »  श्लोक 23
 
 
श्लोक  3.27.23 
प्रकृति: पुरुषस्येह दह्यमाना त्वहर्निशम् ।
तिरोभवित्री शनकैरग्नेर्योनिरिवारणि: ॥ २३ ॥
 
शब्दार्थ
प्रकृति:—प्रकृति का प्रभाव; पुरुषस्य—जीवात्मा का; इह—यहाँ; दह्यमाना—जलकर; तु—लेकिन; अह:-निशम्— दिन-रात; तिर:-भवित्री—विलीन होकर; शनकै:—धीर-धीरे; अग्ने:—अग्नि का; योनि:—उदय का कारण; इव— सदृश; अरणि:—काष्ठ, जिससे अग्नि उत्पन्न की जाती है ।.
 
अनुवाद
 
 प्रकृति के प्रभाव ने जीवात्मा को ढक कर रखा है मानो जीवात्मा सदैव प्रज्ज्वलित अग्नि में रह रहा हो। किन्तु भक्ति करने से यह प्रभाव उसी प्रकार दूर किया जाता सकता है, जिस प्रकार अग्नि उत्पन्न करने वाले काष्ठ-खण्ड स्वयं भी अग्नि द्वारा भस्म हो जाते हैं।
 
तात्पर्य
 अग्नि लकड़ी के टुकड़ो के भीतर संरक्षित रहती है और परिस्थितियाँ अनुकूल होने पर अग्नि जल उठती है, किन्तु जो काष्ठ-खण्ड अग्नि उत्पन्न करने वाले होते हैं, वे भी अग्नि के द्वारा स्वाहा हो जाते हैं। इसी प्रकार जीवात्मा का सांसारिक बद्ध जीवन प्रकृति पर अधिकार जताने की उसकी इच्छा तथा परमेश्वर से द्वेष करने के कारण है। इस प्रकार से मुख्य रोग यह है कि वह परमेश्वर से एकाकार होना चाहता है, या वह भौतिक प्रकृति का स्वामी बनना चाहता है। कर्मीजन प्रकृति के साधनों का उपयोग करने का प्रयत्न करते हैं और इस तरह इसके स्वामी बनकर इन्द्रियतृप्ति का भोग करना चाहते हैं। ज्ञानीजन भौतिक साधनों का भोग करते-करते निराश होकर भगवान् से एकाकार होना या निर्गुण तेज में लीन होना चाहते हैं। ये दोनों रोग भौतिक कल्मष के कारण होते हैं। भौतिक कल्मष को भक्ति द्वारा भस्मसात किया जा सकता है, क्योंकि भक्तिमय सेवा में ये दोनों रोग अर्थात् प्रकृति पर प्रभुत्व जमाने और परमेश्वर से तदाकार होने की इच्छा अनुपस्थित रहते हैं। अत: कृष्णभावनामृत में भक्तियोग को सावधानी से सम्पन्न करने पर सांसारिक अस्तित्व का कारण तुरन्त भस्म हो जाता है।

पूर्ण कृष्णचेतना में भक्त ऊपर से महान् कर्मी प्रतीत होता है, जो सदैव कार्य करता रहता है, किन्तु भक्त के इन कार्यकलापों का आन्तरिक महत्त्व यह है कि वे परमेश्वर की तुष्टि के लिए होते हैं। यह भक्ति कहलाती है। अर्जुन ऊपरी तौर पर योद्धा था, किन्तु जब उसने अपने युद्ध से भगवान् कृष्ण की इन्द्रियों को तुष्ट कर दिया तो वह भक्त बन गया। चूँकि भक्त भी परम पुरुष को उसी रूप में समझने के लिए दार्शनिक शोध में रत रहता है, अत: उसके कार्यकलाप चिन्तक-जैसे लग सकते हैं, किन्तु वास्तव में वह आध्यात्मिक प्रकृति तथा दिव्य कार्यकलापों को समझने का प्रयत्न करता रहता है। यद्यपि उसमें दार्शनिक चिन्तन की प्रवृत्ति पाई जाती है, किन्तु सकाम कर्म के फल तथा यादृच्छिक चिन्तन नहीं पाये जाते, क्योंकि यह कार्य भगवान् के निमित्त है।

 
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