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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 27: प्रकृति का ज्ञान  »  श्लोक 26
 
 
श्लोक  3.27.26 
एवं विदिततत्त्वस्य प्रकृतिर्मयि मानसम् ।
युञ्जतो नापकुरुत आत्मारामस्य कर्हिचित् ॥ २६ ॥
 
शब्दार्थ
एवम्—इस प्रकार; विदित-तत्त्वस्य—परम सत्य के जानने वाले की; प्रकृति:—प्रकृति; मयि—मुझ पर; मानसम्— मन को; युञ्जत:—स्थिर करते हुए; —नहीं; अपकुरुते—हानि पहुँचा सकता है; आत्म-आरामस्य—आत्म में आनन्द उठाने वाले को; कर्हिचित्—कभी भी ।.
 
अनुवाद
 
 प्रकृति का प्रभाव किसी प्रबुद्ध मनुष्य को हानि नहीं पहुँचा सकता, भले ही वह भौतिक कार्यकलापों में ही व्यस्त क्यों न रहता हो, क्योंकि वह परम सत्य की सच्चाई को जानता है और उसका मन भगवान् में ही स्थिर रहता है।
 
तात्पर्य
 भगवान् कपिल कहते हैं कि जिस भक्त का मन सदैव भगवान् के चरणकमलों में स्थिर रहता है (मयि मानसम्) वह आत्मराम या विदित-तत्त्व कहलाता है। आत्माराम का अर्थ है, जो “अपने आप में आनन्द उठाता है” या “जो आध्यात्मिक परिवेश में भोग करता है।” भौतिक दृष्टि से, आत्मा का अर्थ है शरीर या मन, किन्तु यहाँ यह ऐसे व्यक्ति के लिए निर्दिष्ट है, जिसका मन भगवान् के चरणकमलों में स्थिर रहता है, वह आत्माराम होता है, जिसका अर्थ है “जो परमात्मा के प्रसंग में आध्यात्मिक कार्य-कलापों में व्यस्त रहता है।” परमात्मा ही भगवान् है और व्यष्टि आत्मा जीव है। जब वे परस्पर सेवा तथा आशीष का आदान-प्रदान करते हैं, तो जीव को आत्माराम स्थिति में कहा जाता है। कोई भी व्यक्ति, जो सत्य को यथा रूप में जानता है, आत्माराम स्थिति को प्राप्त कर सकता है। सच्चाई तो यह है कि भगवान् भोक्ता है और सारे जीव उसकी सेवा तथा भोग के निमित्त हैं। जो इस सत्य को जानता है और अपने सारे साधनों को भगवान् की सेवा में लगाने का प्रयत्न करता है, वह सारे भौतिक कर्मफलों तथा प्रकृति के गुणों के प्रभावों से बच जाता है।

इस प्रसंग में एक उदाहरण दिया जा सकता है। जिस प्रकार कि एक भौतिकवादी व्यक्ति एक विशाल गगनचुम्बी प्रासाद बनवाता है भक्त उसी तरह विष्णु का एक विशाल मन्दिर बनवाने में लगा रहता है। ऊपर से गगनचुम्बी प्रासाद तथा मन्दिर बनवाने वाले समान धरातल पर हैं, क्योंकि दोनों ही लकड़ी, पत्थर, लोहा तथा अन्य इमारती सामान एकत्र करते रहते हैं। किन्तु जो व्यक्ति गगनचुम्बी प्रासाद बनवाता है, वह आत्माराम है। भौतिकतावादी गगनचुम्बी प्रासाद बनाकर अपने शरीर को तुष्ट करना चाहता है, किन्तु भक्त मन्दिर बनवाकर परमात्मा अर्थात् भगवान् को प्रसन्न करना चाहता है। यद्यपि दोनों ही भौतिक कार्यकलापों के संसर्ग में हैं, तो भी भक्त मुक्त होता है और भौतिकतावादी बद्ध होता है। इसका कारण यह है कि मन्दिर बनवाने वाला भक्त अपने मन को भगवान् में स्थिर किये हुए है, किन्तु गगनचुम्बी प्रासाद बनवाने वाला अभक्त इन्द्रियतृप्ति में अपना मन रमाये रहता है। कोई कार्य करते हुए, इस जगत में भी, यदि किसी का मन भगवान् के चरणकमलों में स्थिर रहता है, तो वह बद्ध नहीं होगा। भक्ति में काम करने वाला प्रकृति से सदैव स्वतन्त्र रहता है।

 
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