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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 27: प्रकृति का ज्ञान  »  श्लोक 3
 
 
श्लोक  3.27.3 
तेन संसारपदवीमवशोऽभ्येत्यनिर्वृत: ।
प्रासङ्गिकै: कर्मदोषै: सदसन्मिश्रयोनिषु ॥ ३ ॥
 
शब्दार्थ
तेन—उससे; संसार—बारम्बार जन्म-मृत्यु का; पदवीम्—मार्ग, पथ; अवश:—निरुपाय होकर; अभ्येति—भोगता है; अनिर्वृत:—असंतुष्ट; प्रासङ्गिकै:—प्रकृति की संगति से उत्पन्न; कर्म-दोषै:—गलत कर्मों से; सत्—अच्छा; असत्— बुरा; मिश्र—मिला-जुला; योनिषु—विविध योनियों में ।.
 
अनुवाद
 
 अत: बद्धजीव भौतिक प्रकृति के गुणों के साथ अपनी संगति के कारण उच्चतर तथा निम्नतर विभिन्न योनियों में देहान्तर करता रहता है। जब तक वह भौतिक कार्यों से मुक्त नहीं हो लेता उसे अपने दोषपूर्ण कार्य के फलस्वरूप यह स्थिति स्वीकार करते रहनी पड़ती है।
 
तात्पर्य
 यहाँ पर कर्मदोषै: का अर्थ है “त्रुटिपूर्ण कर्मों से”। यह इस संसार में अच्छा या बुरा जो भी कर्म किया जाता है उनको निर्देश करता है—वे भौतिक संसर्ग के कारण कल्मषयुक्त तथा त्रुटिपूर्ण होते हैं। मूर्ख बद्धजीव यह सोच सकता है कि वह लोक-कल्याण के लिए अस्पताल खोलकर या शिक्षा देने के लिए शैक्षिण संस्थान खोलकर दान दे रहा है, किन्तु वह यह नहीं जानता कि ऐसे सारे कार्य दोषपूर्ण होते हैं, क्योंकि इससे उसे एक शरीर से दूसरे में देहान्तरण से छूट नहीं मिल सकती। यहाँ स्पष्ट उल्लेख है—सद्-असत्-मिश्र योनिषु—जिसका अर्थ है कि इस संसार में अपने पुण्य कर्मों के लिए मनुष्य उच्चवंश में या उच्च लोकों में देवताओं के मध्य जन्म ले सकता है। किन्तु उसका यह कार्य भी दोषपूर्ण है, क्योंकि इससे मुक्ति नहीं मिलती। उत्तम स्थान या उच्च कुल में जन्म लेने का अर्थ यह नहीं होता कि इससे सांसारिक क्लेशों, अर्थात् जन्म, मृत्यु, जरा तथा व्याधि के कष्टों से बचा जा सकता है। बद्धजीव प्रकृति के सम्मोह के वशीभूत होकर यह नहीं समझ पाता कि इन्द्रियतृप्ति के लिए जो भी कार्य किया जाता है, वह दोषपूर्ण होता है। केवल भगवान् की भक्ति के लिए किये जाने वाले कार्य उसे दोषपूर्ण कर्म के फल से छुटकारा दिला सकते हैं। चूँकि वह ऐसे दोषपूर्ण कार्य बन्द नहीं करता इसलिए उसे शरीर बदलने पड़ते हैं, कभी उच्च तो कभी निम्न। यह संसार-पदवीम् कहलाता है, जिसका अर्थ है ‘यह जगत जिससे छुटकारा नहीं है’। जो मनुष्य मुक्ति की कामना करता है उसे अपने कर्म भक्ति के लिए करने होंगे। इसका कोई विकल्प नहीं है।
 
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