जब सिद्ध योगी का ध्यान योगशक्ति की गौण वस्तुओं की ओर, जो बहिरंगा शक्ति के प्राकट्य हैं, आकृष्ट नहीं होता तब मेरी ओर उसकी प्रगति असीमित होती है और इस तरह उसे मृत्यु कभी भी परास्त नहीं कर सकती।
तात्पर्य
सामान्यत: योगीजन योगशक्ति की गौण वस्तुओं के प्रति आकृष्ट होते रहते हैं, क्योंकि वे लघुतर से लघुतम और दीर्घ से दीर्घतम हो सकते हैं, जो भी चाहें प्राप्त कर सकते हैं, लोक की सृष्टि करने की शक्ति से सम्पन्न होते हैं या किसी को अपने अधीन कर सकते हैं। जिन योगियों को भक्ति के फल की अपूर्ण जानकारी होती है वे ही इन शक्तियों के प्रति आकृष्ट होते हैं, किन्तु ये सारी शक्तियाँ भौतिक होती हैं, आध्यात्मिक उन्नति से इनका कोई सरोकार नहीं रहता है। जिस प्रकार भौतिक शक्ति से अन्य भौतिक शक्तियाँ उत्पन्न हैं उसी प्रकार योगशक्ति भी भौतिक होती है। सिद्धयोगी का मन किसी भी भौतिक शक्ति से आकृष्ट नहीं होता है, वह तो एकमात्र परमेश्वर की अमिश्रित भक्ति से आकृष्ट होता है। भक्त के लिए ब्रह्मतेज में लीन होना नारकीय है और उसे योगशक्ति स्वत: प्राप्त हो जाती है। स्वर्गलोक जाने को भक्त केवल मायाजाल मानता है। भक्त का ध्यान केवल भगवान् की प्रेमा-भक्ति में केन्द्रित होता है, अत: मृत्यु की शक्ति उस पर कोई प्रभाव नहीं डालती। ऐसी भक्तिमयी स्थिति में सिद्ध योगी को अमर ज्ञान तथा आनन्द का पद प्राप्त हो सकता है।
इस प्रकार श्रीमद्भागवत के तृतीय स्कन्ध के अन्तर्गत “प्रकृति का ज्ञान” नामक सत्ताइसवें अध्याय के भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुए।
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